सेव अरावली, सेव फ्यूचर: क्या 100 मीटर की परिभाषा से अरावली को ही मिटा दिया जाएगा?
“सेव अरावली, सेव फ्यूचर”—दिल्ली से लेकर राजस्थान और गुजरात तक यह नारा आज सड़कों पर गूंज रहा है। लोग चिंता जता रहे हैं, सवाल पूछ रहे हैं, लेकिन केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव का कहना है कि इस तरह की चिंताएं “भ्रम फैलाने” वाली हैं। सवाल यह है कि भ्रम वास्तव में जनता फैला रही है या फिर भ्रम खुद सरकार की नई परिभाषा में छिपा हुआ है?
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पहाड़ियों की पहचान और परिभाषा तय करने के लिए केंद्र सरकार के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है। इस प्रस्ताव के मुताबिक अब सिर्फ 100 मीटर से ऊंची पहाड़ियों को ही अरावली पर्वत माना जाएगा। इससे कम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में खनन और निर्माण गतिविधियों के लिए रास्ता लगभग खुला छोड़ दिया गया है।
100 मीटर की सीमा: आधार से या शिखर से?
केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव का दावा है कि 100 मीटर की ऊंचाई की गणना पहाड़ी के निचले आधार (base) से की जाएगी, न कि उसके शिखर (top) से। लेकिन पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि यह तकनीकी परिभाषा नहीं, बल्कि अरावली को कानूनी दायरे से बाहर करने की रणनीति है।
विशेषज्ञों के अनुसार इस नई ऊंचाई-आधारित परिभाषा से लगभग 90 प्रतिशत अरावली क्षेत्र “अरावली” ही नहीं माना जाएगा। यानी जिन पहाड़ियों ने सदियों से पर्यावरण को संतुलित रखा, वे अचानक कानून की नजर में अस्तित्वहीन हो जाएंगी।
अरावली का महत्व ऊंचाई में नहीं, भूमिका में है
अरावली पर्वतमाला का महत्व उसकी ऊंचाई में नहीं, बल्कि उसके कार्य (function) में है। यह पर्वतमाला एक प्राकृतिक जल-संग्रह प्रणाली की तरह काम करती है।
- यही अरावली राजस्थान, दिल्ली, गुरुग्राम, फरीदाबाद और अलवर जैसे शहरों को पानी देती है
- यही क्षेत्र भूजल रिचार्ज करता है
- यही दिल्ली-NCR को कुछ हद तक साफ हवा देता है
- यही मरुस्थलीकरण को रोकने में एक प्राकृतिक दीवार की भूमिका निभाता है
अरावली भारत की सबसे प्राचीन पर्वत शृंखलाओं में से एक है। इसकी उम्र दो अरब वर्ष से भी अधिक मानी जाती है। यह गुजरात के कच्छ क्षेत्र से शुरू होकर राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली तक फैली हुई है। दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व तक इसकी लंबाई लगभग 690 किलोमीटर है। आज भी यह चार राज्यों के लिए एक लाइफलाइन की तरह काम कर रही है।
‘सेव’ के नारे, लेकिन कुछ भी सेव नहीं
अरावली अकेली नहीं है।
- सेव हिमालय
- सेव नियामगिरी
- सेव हसदेव
ये नारे भी हमने सुने हैं। लेकिन क्या वाकई कुछ बचा?
लद्दाख के लिए आवाज उठाने वाले सोनम वांगचुक को ही देख लीजिए। सेव लद्दाख का नारा लगाने पर उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बताकर जेल में डाल दिया गया।
दिल्ली के लोगों ने जब प्रदूषण के खिलाफ आवाज उठाई, “सांस का हक” मांगा, तो उन्हें भी जेल का रास्ता दिखाया गया।
तो क्या यह समझा जाए कि मौजूदा सरकार को
- न पर्यावरण की चिंता है
- न लोगों की सेहत की
- बल्कि प्राथमिकता सिर्फ बड़े कॉरपोरेट और मेट्रो उद्योगपतियों के हित हैं?
अगर पहाड़ और जंगल नहीं बचे, तो क्या हम बचेंगे?
यह सवाल सिर्फ अरावली का नहीं है। यह सवाल हमारे भविष्य का है।
अगर जंगल नहीं बचे,
अगर पहाड़ नहीं बचे,
अगर पानी और हवा नहीं बची—
तो क्या हम और आप, और यह धरती बच पाएगी?
“सेव अरावली, सेव फ्यूचर” सिर्फ एक नारा नहीं, बल्कि चेतावनी है।
अब यह देखना है कि सरकार इसे सुनेगी या हमेशा की तरह इसे भी “भ्रम” कहकर खारिज कर देगी।
