October 6, 2025 10:13 am
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ट्रंप का ‘बोर्ड ऑफ पीस’—शांति का वादा या जेनोसाइड की कवर स्टोरी?

फिलिस्तीन को बाहर कर गाजा में शांति का ढोंग, सब इज़रायल के लिए

ट्रंप ने जो नया “बोर्ड ऑफ पीस” पेश किया, उसे लेकर दुनिया के कई हिस्सों में आक्रोश है — और सही कारण से। जिन लोगों के हाथ ख़ून से रंगे हुए हैं, वे दुनिया को बता रहे हैं कि उन्होंने एक नया मंच बनाया है; शान्ति का बहाना, वरना ज़्यादा गहरा इकबाल। बेबाग भाषा की तरफ़ से साफ़ और बेबाक शब्दों में कहा जाना चाहिए: यह सिर्फ़ दिखावा नहीं, यह गन्दा कूटनीति और गुंडागर्दी है, जिसका असल मकसद कुछ और ही है।

प्रस्ताव की पृष्ठभूमि: गाज़ा में हालात और वैश्विक प्रतिक्रिया

सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि इस “शान्ति प्रस्ताव” की पृष्ठभूमि क्या है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति और वर्तमान शक्तिशाली नेता ने यह पहल तब की जब गाज़ा में नरसंहार की रिपोर्टें लगातार आ रही थीं — लाखों लोग विस्थापित, हजारों मारे गए, बड़ी संख्या में बच्चे और महिलाएँ शहीद। उन्हीं के साथ खड़े होकर, ट्रंप ने एक ऐसा मंच घोषित किया जिसमें फिलिस्तीनियों की भागीदारी नाममात्र की है। यानि जिन पर हमला हो रहा है, जो पीड़ित हैं — उन्हें निर्णायक बातचीत से बाहर रखा गया है। क्या यही है वह ‘शान्ति’ जिसकी दुनिया को तलाश है?

टोनी ब्लेयर का विवादित रोल और राजनीतिक अर्थ

इस समझौते के पीछे दो बड़ी बातें साफ़ नज़र आती हैं। पहली — इस समझौते का मुख्य लाभवार्ता वाले पक्षों और उनके समर्थकों को मिलेगा, न कि पीड़ित जनता को। दूसरी — ऐसे नेताओं और हस्तियों को शामिल करना जिनका नाम पहले से विवादों में रहा है (जैसे कि टोनी ब्लेयर का ज़िक्र) इससे यह शक और मजबूत होता है कि यह प्रक्रिया निष्पक्ष नहीं होगी। ब्लेयर जैसे लोग जिनके ऊपर इराक के युद्ध के दौरान भयंकर आरोप रहे हैं, उनके हाथों शांति का “रीकन्स्ट्रक्शन” दिया जाना बताता है कि किस तरह पुराने युद्ध-निर्माताओं को नया मंच मिल रहा है।

संयुक्त राष्ट्र की हालिया जनरल असेंबली ने इस पूरे घटनाक्रम पर जो रुख अपनाया, वह संकेतात्मक है: बड़ी संख्या में देशों ने इस वक्तव्य का विरोध या बहिष्कार किया। यही नहीं — उसी समय जब ‘बोर्ड ऑफ पीस’ का ऐलान हो रहा था, गाज़ा में नई बमबारी से और नए नागरिकों की जानें जा रही थीं। यह विरोधाभास दर्शाता है कि कूटनीतिक तमाशा और मोर्चों पर जारी हिंसा साथ-साथ चल रही है।

फिलिस्तीनियों की प्रतिक्रिया: क्यों यह प्रस्ताव स्वीकार्य नहीं?

फिलिस्तीनी नेतृत्व और प्रतिरोध समूहों ने इस प्रस्ताव को स्पष्ट रूप से खारिज किया है। उनका कहना है — वास्तविक शान्ति की राह बस एक ही है: इस्राइल के हमलों को रोकना, ऊपर से लगे नाकाबंदी को हटाना, और फिलिस्तीनियों के स्वतन्त्र जीवन और आत्म-निर्णय के अधिकार की गारंटी देना। बिना इन शर्तों के किसी भी समझौते का किसी भी तरह का नैतिक या व्यावहारिक आधार नहीं बनता।

भारत और अन्य देशों की प्रतिक्रियाएँ: कूटनीतिक निहितार्थ

दूसरी तरफ़, राजनीतिक बयानबाज़ी में भारत के प्रधानमंत्री का तुरंत स्वागत और समर्थन भी चर्चा का विषय बन गया। मोदी जी का समर्थन यह दिखाता है कि वैश्विक राजनयिक समीकरण कितने तेज़ी से बदल रहे हैं — पर सवाल यही है: क्या किसी भी देश का पहला मानदंड मानवता और पीड़ितों की आवाज़ नहीं होना चाहिए?

अंततः, यह मामला सिर्फ़ एक मंच बनाम दूसरा मंच नहीं है। यह मामला है — किसके अधिकार और सुरक्षा को महत्व दिया जा रहा है; किसकी ज़िंदगी की बात को सुना जा रहा है; और किसके लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय बोलने की हिम्मत दिखा रहा है। जब शान्ति की बातें सामने आती हैं, तो सबसे पहली शर्त यह होनी चाहिए कि हम उन लोगों की आवाज़ सुनें जिनके घर, बच्चे और अस्तित्व पर खतरा है। बिना उनकी सक्रिय भागीदारी और बिना हमलों के ठहराव के, किसी भी “बोर्ड” की घोषणाएँ सिर्फ़ दिखावा और शमन-उद्देश्य होंगी — और वे तब तक शान्ति नहीं लाएंगी जब तक कि उनकी नींव ही क्रूरता और सामरिक लाभ पर टिकी न हो।

निष्कर्ष: सच्ची शांति के लिए क्या आवश्यक है?

निष्कर्ष साफ़ है: अगर शान्ति है तो वह सबका सम्मान, सुरक्षा और आत्म-निर्णय लेकर आए — न कि जेनोसाइड को पल्लवित करने वाले नेताओं के लिए एक परदा। इसीलिए हम इस “बोर्ड ऑफ पीस” को सवालों के घेरे में रखते हैं और मांग करते हैं — पहले गाज़ा में हमलों को रोको, नाकाबंदी हटाओ, और फिलिस्तीनियों को उनकी बातचीत की जगह दो।

भाषा सिंह

1971 में दिल्ली में जन्मी, शिक्षा लखनऊ में प्राप्त की। 1996 से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।
'अमर उजाला', 'नवभारत टाइम्स', 'आउटलुक', 'नई दुनिया', 'नेशनल हेराल्ड', 'न्यूज़क्लिक' जैसे
प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों

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