October 6, 2025 8:18 am
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क्या लोकतंत्र में सेना राजनीतिक भाषा बोल रही है?

सेना प्रमुख और वायुसेना प्रमुख के बयानों ने नया विवाद खड़ा किया है। क्या सेना को चुनावी राजनीति में झोंका जा रहा है? पढ़िए पूरा विश्लेषण।

सेना प्रमुख और वायुसेना प्रमुख की इस समय बयानबाज़ी के क्या मायने हैं

भारत के लोकतंत्र के सामने इस समय एक बेहद गंभीर सवाल खड़ा है—क्या सेना प्रमुख और वायुसेना प्रमुख अब राजनीतिक भाषा बोलने लगे हैं? हाल ही में ऑपरेशन सिंदूर को लेकर दिए गए उनके बयानों ने न केवल बहस छेड़ी है बल्कि इस बात की चिंता भी बढ़ा दी है कि क्या सशस्त्र सेनाओं का इस्तेमाल चुनावी राजनीति के लिए किया जा रहा है।

सेना प्रमुख और वायुसेना प्रमुख के बयान

वायुसेना प्रमुख एपी सिंह ने हाल ही में दावा किया कि भारत ने ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तान के 13 लड़ाकू विमान मार गिराए, जिनमें अमेरिकी F-16 और चीनी JF-17 शामिल थे। वहीं, आर्मी चीफ जनरल उपेंद्र दिवेदी ने राजस्थान के अनूपगढ़ में विजयदशमी पर सैनिकों को संबोधित करते हुए कहा कि “ऑपरेशन सिंदूर 2” हुआ तो भारत इस बार संयम नहीं बरतेगा और पाकिस्तान का “नामों-निशान नक्शे से मिट जाएगा।”

इस तरह की बयानबाज़ी किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में चौंकाने वाली है क्योंकि युद्ध, विदेश नीति और सुरक्षा से जुड़े निर्णय हमेशा राजनीतिक नेतृत्व द्वारा लिए जाते रहे हैं, सेना प्रमुखों द्वारा नहीं।

“वाई नाउ” – अभी क्यों?

सबसे अहम सवाल है कि इतने महीनों बाद ऑपरेशन सिंदूर को अचानक फिर से क्यों उठाया जा रहा है?

  • उस समय जब संघर्ष चल रहा था, सेना रोज़ाना मीडिया को संयमित भाषा में ब्रीफिंग देती थी।
  • अब, जब राजनीतिक माहौल चुनावों की ओर बढ़ रहा है, तो सेना प्रमुख और वायुसेना प्रमुख के बयान चुनावी विमर्श से मेल खाते दिखाई दे रहे हैं।
  • क्या यह महज़ संयोग है या फिर सुनियोजित रणनीति?

राजनीतिक परिप्रेक्ष्य और मोदी सरकार की रणनीति

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद ऑपरेशन सिंदूर के बाद संसद में बयान दिया था और जनता के सामने “खून और पानी एक साथ नहीं बह सकता” जैसे डायलॉग पेश किए थे। अब वही भाषा सेना प्रमुखों से सुनाई दे रही है।

यह परिदृश्य चुनावी राजनीति से जुड़ा प्रतीत होता है। हाल के वर्षों में यह पैटर्न सामने आया है कि जब भी चुनाव नज़दीक आते हैं, राष्ट्रीय सुरक्षा और पाकिस्तान-विरोधी राष्ट्रवाद का मुद्दा तेज़ कर दिया जाता है। पुलवामा और बालाकोट हमले इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं।

लोकतंत्र और सेना की तटस्थता पर प्रश्नचिन्ह

भारत में लोकतांत्रिक परंपरा रही है कि सेना राजनीतिक विमर्श से अलग रहे। पाकिस्तान जैसे देशों में सेना का राजनीतिक दखल आम बात है, लेकिन भारत ने हमेशा यह गर्व किया है कि यहाँ सेना केवल अपने संवैधानिक कर्तव्यों तक सीमित रहती है।

लेकिन आज जब सेना प्रमुख और वायुसेना प्रमुख खुद मंच से “पाकिस्तान का नाम नक्शे से मिटा देंगे” जैसे बयान दे रहे हैं, तो यह तटस्थता संदेह के घेरे में आ जाती है।

विपक्ष और बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया

कांग्रेस नेता अजय राय ने कहा है कि शीर्ष रक्षा अधिकारी अलग-अलग बयान देकर भ्रम पैदा कर रहे हैं।
लेखक अपूर्वानंद और पत्रकार राजू परुलकर ने भी इस बयानबाज़ी को “जिंगोइज्म” बताया और कहा कि ऐसी भाषा सेना की नहीं बल्कि राजनीतिक दलों की हो सकती है।

असली चुनौतियों से ध्यान भटकाना?

इस बीच भारत की अर्थव्यवस्था पर वर्ल्ड बैंक का 24.4 बिलियन डॉलर का कर्ज है और अमेरिका ने भारतीय उत्पादों पर 50% तक का टैरिफ़ लगाया है। ऐसे में सवाल उठना लाज़मी है कि क्या इस बयानबाज़ी का मकसद जनता का ध्यान असली मुद्दों से हटाकर पाकिस्तान-विरोधी राष्ट्रवाद की ओर मोड़ना है?

निष्कर्ष

भारत का लोकतंत्र अपनी परंपरा और संस्थागत ढांचे पर गर्व करता रहा है। लेकिन अगर सेना प्रमुख और वायुसेना प्रमुख राजनीतिक अंदाज़ में बयान देने लगें तो यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए गंभीर खतरे का संकेत है।

आज सबसे बड़ा सवाल यही है:
“अभी क्यों?” – Why Now?
क्या यह चुनावी तैयारी का हिस्सा है? क्या सेना को राजनीतिक मोर्चे पर उतारा जा रहा है? और अगर हां, तो यह भारत के लोकतंत्र की नींव को कितनी गहराई तक हिला देगा?

भाषा सिंह

1971 में दिल्ली में जन्मी, शिक्षा लखनऊ में प्राप्त की। 1996 से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।
'अमर उजाला', 'नवभारत टाइम्स', 'आउटलुक', 'नई दुनिया', 'नेशनल हेराल्ड', 'न्यूज़क्लिक' जैसे
प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों

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