October 6, 2025 8:18 am
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जहरीले कफ सिरप से 11 बच्चों की मौत — मध्यप्रदेश-राजस्थान में जवाबदेही कब?

24 दिनों में 11 मासूमों की मौत पर उठते सवाल — सरकारी मुफ्त दवाओं में मिली मिलावट, जनता को चाहिए स्वतंत्र जांच और मुआवजा।

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24 दिनों में 11 मासूम बच्चों की मौत — यह संख्या किसी दुर्घटना का आंकड़ा नहीं, बल्कि उन परिवारों की अनकही त्रासदी है जिनके बच्चे सरकारी मुफ्त दवा के जरिए दिए जा रहे कफ सिरप के कारण दम तोड़ चुके हैं। मध्यप्रदेश और राजस्थान में गरीब परिवारों के बच्चे वही दवा ले रहे थे जिसे तभी-तभी मुफ्त अस्पतालों और आरोग्य योजनाओं में दिया जा रहा था। तमिलनाडु की टेस्ट रिपोर्ट ने कहा कि उसी सिरप में मिलावट मिली है; फिर भी मध्यप्रदेश और राजस्थान की सरकारों ने 24 दिनों बाद भी स्पष्ट जवाब देने से इनकार कर दिया — यही बात हमें चिंता में डालती है।

क्या हुआ — संक्षिप्त टाइमलाइन

  • पहले मामले अस्पतालों में गंभीर किडनी और अन्य लक्षणों के साथ दर्ज हुए।
  • कुछ बच्चों का हीलाहवाली के बाद बिगड़ना और अगले दिनों मृत्यु की खबरें आईं।
  • तमिलनाडु की जांच में जिस सिरप में मिलावट (adulteration) की बात आई, वही सिरप मध्यप्रदेश–राजस्थान के मुफ्त दवा कार्यक्रम में बांटा गया था।
  • स्थानीय मीडिया, खासकर दैनिक भास्कर ने इस पर लगातार रिपोर्ट्स प्रकाशित कीं, पर राजनीतिक और प्रशासनिक जिम्मेदारियाँ अब तक साफ़ नहीं हुईं।

क्या है सिरप में मिलावट और वह कैसे जानलेवा है

रिपोर्टों के अनुसार (टिपण्णी: यह विवरण उपलब्ध समाचार/रिपोर्ट पर आधारित है) इस तरह के मिलावटी सिरप में औद्योगिक सॉल्वेंट — जैसे डाईएथीलीन ग्लाइकोल (Diethylene glycol) या इसका इस्तेमाल कर के सिरप पतला करने वाली सस्ती सामग्रियाँ मिलाई जाती हैं। ये औद्योगिक रसायन बच्चों की किडनी और नसों पर गंभीर असर डालते हैं और कम मात्रा में भी विषैला साबित हो सकते हैं। कारण बहुत स्पष्ट है — सस्ती सामग्री में मिलावट करने से कंपनियों का मुनाफ़ा बढ़ता है, पर बच्चे इसका खामियाजा चुकाते हैं।

उठने वाले मुख्य सवाल (जिनका जवाब चाहिए)

  1. यह सिरप कैसे सरकारी मुफ्त दवा सूची में शामिल रहा — जबकि निजी और अन्य परीक्षणों में इसे कई बार फेल बताया गया?
  2. जिन कंपनियों ने यह सिरप बनाया — उनका राजनीतिक या प्रशासनिक कनेक्शन क्या है? क्या कोई रिश्ता/प्रोटेक्शन है?
  3. क्या सरकारी खरीद में गुणवत्ता नियंत्रण का ठीक से पालन हुआ? किस लैब ने अंतिम मंजूरी दी?
  4. क्या मृत बच्चों के परिवारों को तत्काल मुआवजा और इलाज की व्यवस्था की गयी?
  5. क्या दोषियों के खिलाफ FIR, आपराधिक और सिविल कार्रवाई की गयी — और क्या नर्सिंग/हॉस्पिटल सिस्टम में जिम्मेदार डॉक्टरों के खिलाफ कोई जांच हुई?
  6. कितने और बच्चे अभी अस्पतालों में जीवन-और-मृत्यु के बीच हैं — उनका रिकॉर्ड सार्वजनिक क्यों नहीं किया गया?

प्रशासनिक और राजनीतिक जवाबदेही — कहाँ कमी रह गयी

  • परीक्षण और मानक: यदि एक प्रोडक्ट कई निजी लैबों में फेल हो रहा था, तो सरकारी खरीद-प्रक्रिया में कैसे उसे स्वीकार्य घोषित किया गया — यह घोर लापरवाही या जानबूझकर संरक्षण दिखाती है।
  • पारदर्शिता का अभाव: मरीजों के मेडिकल रिकॉर्ड, प्रयोगशाला रिपोर्ट और सरकारी खरीद-ऑर्डर सार्वजनिक नहीं किए जा रहे — इससे आशंका बढ़ती है।
  • मीडिया और विमर्श: बड़े मीडिया हाउसों में से कुछ ने इस मुद्दे को उठाया, पर राष्ट्रीय/प्रमुख चैनल और कई राजनीतिक दल चुप्पी बनाए हुए हैं — जब सवाल गरीबों के स्वास्थ्य का हो तो चुप्पी खतरनाक होती है।
  • राजनीतिक संरक्षण के आरोप: जनता के बीच यह सवाल उठ रहा है कि क्या दवा निर्माता कंपनियों को राजनीतिक-संबंधों के कारण संरक्षण मिल रहा है — इस प्रश्न की निष्पक्ष जाँच आवश्यक है।

क्या किया जाना चाहिए — तात्कालिक माँगें

  1. तुरंत: उस सिरप का पूर्ण प्रभावी रिकोॉल — वितरण तत्काल बंद और बचे हुए स्टॉक जब्त किए जाएँ।
  2. स्वतंत्र जांच: केंद्रीय स्तर पर एक स्वतंत्र, न्यायिक (सक्षम) पूछताछ/नायब-न्यायाधीश कमेटी बनाकर पूरी खरीद, वितरण और परीक्षण प्रक्रिया की ऑडिट कराई जाए।
  3. फोरेंसिक लैब टेस्ट: राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त प्रयोगशालाओं द्वारा सैंपल की रिपीट टेस्टिंग कराई जाए और रिपोर्ट सार्वजनिक की जाए।
  4. मुआवजा और उपचार: मृतक परिवारों को तत्काल आर्थिक मुआवजा और जारी इलाज के लिए निशुल्क उच्च-स्तरीय उपचार की व्यवस्था।
  5. कठोर दंड: दोष सिद्ध होने पर निर्माण कंपनी, संबद्ध अधिकारियों और निजी दुकानदारों/आपूर्तिकर्ताओं के खिलाफ आपराधिक मुक़दमा दर्ज किया जाए।
  6. नल/सप्लाई चेन की जाँच: निर्देशित ऑडिट यह पहचाने कि कब और कहाँ मिलावट या असंगति हुई — निर्माण, पैकेजिंग, या स्टोरेज में।
  7. नियमों में सुधार: सरकारी फ्री-ड्रग प्रोग्राम के लिए गुणवत्ता नियंत्रण के कड़े मानक और नियमित रैंडम टेस्टिंग अनिवार्य होनी चाहिए।

निष्कर्ष — यह सिर्फ़ आँकड़े नहीं, यह ज़िंदगियाँ हैं

यह मामला सिर्फ़ दवा की मिलावट का नहीं है — यह राज्य की जवाबदेही, सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की नब्ज़ और दलगत राजनीति की प्राथमिकताओं पर एक सवाल है। जब मृतक गरीब बच्चे हों तो इनके पीछे वाले सिस्टम की लापरदशी और शिकन किसी भी लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है। सरकारों का कर्तव्य है कि वे पारदर्शी हो, जवाब दें और दोषियों को सज़ा दिलाएँ — वरना यह मौन, इस देश के गरीबों के जीवन के लिए एक बड़ा खतरा बन जाएगा।

भाषा सिंह

1971 में दिल्ली में जन्मी, शिक्षा लखनऊ में प्राप्त की। 1996 से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।
'अमर उजाला', 'नवभारत टाइम्स', 'आउटलुक', 'नई दुनिया', 'नेशनल हेराल्ड', 'न्यूज़क्लिक' जैसे
प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों

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