October 6, 2025 8:21 am
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हमारे सिस्टम का लोगों के प्रति संवेदनशीलता से दूर-दूर तक वास्ता नहीं

डॉ. सुमित्रा महरोल की आत्मकथा “टूटे पंखों से परवाज़” और उनका साहित्यिक सफर—पोलियो से विकलांगता झेलते हुए भी शिक्षा, लेखन और समाज के लिए प्रेरणा बनना।

टूटे पंखों से परवाज़: दलित प्रोफेसर व लेखक डॉ. सुमित्रा महरोल से बेबाक बातचीत

बेबाक भाषा डलित डिस्कोर्स के इस विशेष संवाद में हमने जिस शख्सियत से मुलाक़ात की, उनका नाम है डॉ. सुमित्रा महरोल – शिक्षिका, लेखिका और आत्मकथा “टूटे पंखों से परवाज़” की लेखिका।
श्यामलाल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाली सुमित्रा जी का जीवन साहस, संघर्ष और आत्मबल का अद्भुत उदाहरण है। पोलियो की वजह से 60% विकलांगता के साथ जीवन की शुरुआत करने वालीं सुमित्रा जी ने न केवल शिक्षा के माध्यम से खुद को स्थापित किया, बल्कि साहित्य और लेखन को अपनी शक्ति बनाया।

बचपन के संघर्ष और दादी की प्रेरणा

सुमित्रा जी बताती हैं कि जब वह महज 10 महीने की थीं, तब पोलियो हो गया। समाज और परिवार के भीतर उन्हें उपेक्षा और अलगाव का सामना करना पड़ा। लेकिन उनकी दादी हमेशा कहतीं—“अब हम इसे खूब पढ़ाएँगे”। यही वाक्य उनके जीवन का संकल्प बन गया।
बचपन के अकेलेपन और भेदभाव के बावजूद उन्होंने साहित्य को अपना साथी बनाया और पढ़ाई जारी रखी।

साहित्य से जुड़ाव

पड़ोस की लड़कियों से किताबें माँगकर पढ़ने से लेकर नंदन और चंदामामा जैसी पत्रिकाओं तक, साहित्य ने सुमित्रा जी के भीतर संवेदनाओं और समझ का संसार रचा। प्रेमचंद, अमृतलाल नागर और नागार्जुन उनके प्रिय लेखक बने।
M.Phil उन्होंने अमृतलाल नागर के उपन्यास “सुहाग के नूपुर” पर किया और PhD नागार्जुन के उपन्यासों पर।

आत्मकथा: टूटे पंखों से परवाज़

अपनी आत्मकथा लिखने के पीछे उनकी सोच स्पष्ट है:
“हमारे जीवन के बारे में मुख्यधारा बहुत कम जानती है। किसी और के लिखने से बेहतर है कि हम खुद अपनी प्रामाणिक अनुभूतियाँ लिखें।”
यह किताब न सिर्फ पाठकों ने सराही, बल्कि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में समीक्षाएँ छपीं और विदेशों तक इसकी गूंज पहुँची।

समाज और सरकार के रवैये पर

सुमित्रा जी साफ कहती हैं कि समाज की मानसिकता अब भी विकलांगों को कमतर मानने की है।
“कितनी भी ऊँचाई पर क्यों न पहुँचो, पहले लोग तुम्हारी विकलांगता देखते हैं, तुम्हारी उपलब्धियाँ बाद में।”
सरकारी योजनाओं के बारे में वह मानती हैं कि कागज़ों पर तो बहुत कुछ है, लेकिन भ्रष्टाचार और जटिल प्रक्रियाओं के कारण वास्तविक लाभ अक्सर विकलांग जनों तक नहीं पहुँच पाता।

संदेश विकलांग समाज के लिए

वह कहती हैं—
“अपना सहारा खुद बनो। शिक्षा के बिना कुछ संभव नहीं। रास्ते कठिन होंगे लेकिन दृढ़ संकल्प और सकारात्मक दृष्टि से आप सामान्य जीवन जी सकते हैं।”

लेखन और कविता

सुमित्रा जी कहानियाँ लिखती हैं और समीक्षाएँ भी। उनका कहानी-संग्रह जल्द ही प्रकाशित होने वाला है। उन्होंने हमें अपनी एक कविता भी सुनाई, जिसमें भीतर की आग को बचाए रखने का संघर्ष झलकता है।

दलित विमर्श और स्त्री विमर्श

उनका मानना है कि डलित लेखन में स्त्रियों की आवाज़ हमेशा रही है—सूरजपाल, मोहनदास नेमीश्राय, ओमप्रकाश वाल्मीकि जैसे लेखकों ने स्त्रियों की पीड़ा को जगह दी है।
लेकिन डलित विमर्श जातिगत भेदभाव पर केंद्रित है, जबकि स्त्री विमर्श पितृसत्ता और लैंगिक असमानताओं को उजागर करता है। दोनों विमर्श एक-दूसरे को पूरक हैं।

सम्मान और पहचान

सुमित्रा जी को दलित अस्मिता सम्मान (2018), लाडली मीडिया अवार्ड और ओमप्रकाश वाल्मीकि सम्मान जैसे कई पुरस्कार मिल चुके हैं। लेकिन वह कहती हैं—
“पुरस्कारों से थोड़ी खुशी तो होती है, पर मेरी असली पहचान मेरी शिक्षा और लेखन है।”

✒️ निष्कर्ष

डॉ. सुमित्रा महरोल का जीवन और लेखन हमें यह सिखाता है कि परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों, शिक्षा और आत्मबल हमें समाज के पूर्वाग्रहों से लड़ने की ताक़त देते हैं। उनकी आत्मकथा “टूटे पंखों से परवाज़” सिर्फ उनकी कहानी नहीं, बल्कि उन तमाम दलित और विकलांग स्त्रियों की आवाज़ है जिन्हें अब तक अनसुना किया गया।

राज वाल्मीकि

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