November 22, 2025 12:16 am
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अख़लाक़ मॉब लिंचिंग में योगी सरकार सारे केस वापस लेगी!

दादरी के अखलाक मॉब लिंचिंग केस में यूपी सरकार ने सभी आरोपियों पर केस वापस लेने की प्रक्रिया शुरू की। जानिए घटना, राजनीति और इसके खतरनाक संकेत।

अपने लोगों के खिलाफ मामले वापस लेने में सबसे आगे रही है योगी सरकार

उत्तर प्रदेश सरकार ने दादरी के मोहम्मद अखलाक की मॉब लिंचिंग मामले में अभियुक्तों पर चल रहे केस वापस लेने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। सरकारी वकील ने फास्ट-ट्रैक कोर्ट में इसके लिए औपचारिक अर्जी भी दाखिल कर दी है। यह वही केस है जिसने भारत में “मॉब लिंचिंग” शब्द को राष्ट्रीय शब्दकोश में दर्ज कर दिया था—और अब, दस साल बाद, राज्य सरकार मानो कह रही है कि “अखलाक को तो किसी ने मारा ही नहीं।”

2015: जब अफ़वाह, माइक और भीड़ ने एक ज़िंदगी खत्म कर दी

28 सितम्बर 2015। बकरीद के तीन दिन बाद।
यूपी के दादरी के बिसाहड़ा गांव में अफ़वाह फैलती है कि अखलाक के घर में “गाय का मांस” है। माइक से घोषणा होती है। कुछ ही मिनटों में भीड़ उसके घर पर टूट पड़ती है—तोड़फोड़, फ्रिज की तलाशी, और फिर भीड़ का हिंसक उन्माद।

जो मांस मिला, उसे “गाय का मांस” बताकर अखलाक की पीट-पीटकर हत्या कर दी जाती है। उनका नौजवान बेटा दानिश अधमरा कर दिया जाता है। परिवार के बाकी सदस्यों से भी बदसलूकी।
यही वह दिन था जब देश ने पहली बार खुलेआम सुना—मॉब लिंचिंग

अखलाक, पहलू खान, रकबर खान—और न जाने कितने नाम।
कभी गौतस्करी के नाम पर, कभी गोमांस रखने के नाम पर।
पीटना, मारना, जलाना। यह केवल यूपी नहीं, बल्कि कई राज्यों में फैल चुका पैटर्न था—एक “गौरक्षा” के नाम पर बनी हिंसक भीड़ संस्कृति।

SP सरकार में जांच, BJP की राजनीति

अखलाक की हत्या के समय यूपी में अखिलेश यादव की सरकार थी।
कुछ कार्रवाई हुई—एफआईआर दर्ज हुई, मांस के नमूने लैब भेजे गए।
लैब रिपोर्ट में यह साफ लिखा आया कि मांस गाय का नहीं, बकरे का था

लेकिन उस समय भाजपा ने इसे मानने से इनकार कर दिया और इसे “मुसलमानों को बचाने” की साजिश बताया। राजनीतिक शोर ऐसा था कि तथ्य पीछे छूट गए।

अब योगी सरकार: हत्यारोपियों पर केस वापस लेने की तैयारी

आज यूपी की सत्ता में योगी आदित्यनाथ हैं—और अब उसी केस में राज्य सरकार खुद अदालत में जाकर कह रही है कि मामले को वापस लिया जाए।

सरकारी वकील ने मीडिया को बताया है कि उन्हें सरकार से पत्र मिला, जिसके आधार पर उन्होंने सूरतपुर स्थित फास्ट-ट्रैक कोर्ट में केस वापसी की अर्जी दी है
सुनवाई की तारीख भी तय हो चुकी है—12 दिसंबर।

यह वही पैटर्न है जो हमने पहले भी देखा:

  • योगी आदित्यनाथ ने अपनी सरकार बनते ही अपने ऊपर चल रहा पुराना केस वापस लिया था।
  • 2013 मुजफ्फरनगर दंगों में आरोपी बीजेपी विधायक और नेताओं के खिलाफ केस वापस हुए।
  • कई ऐसे मामले जहां साम्प्रदायिक हिंसा में नाम आए—वापस लिए जा चुके हैं।

ऐसे में अखलाक केस की वापसी केवल एक कानूनी प्रक्रिया नहीं—एक राजनीतिक संदेश है।

किसे संदेश?

  • उन भीड़ों को जो मुसलमानों पर हमला करती हैं
  • उन अधिकारियों को जो बुलडोज़र चलाते हैं
  • उन संगठनों को जिनके लिए गौरक्षा हिंसा का औजार है

संदेश साफ है—“आपके हाथ खुले हैं।”

जब सर्वोच्च न्यायालय बार-बार कह चुका है कि बिना नोटिस बुलडोज़र कार्रवाई गैरकानूनी है, फिर भी यूपी में यह जारी है। अब इसी क्रम में एक अधिक खतरनाक कदम—मॉब लिंचिंग के ऐतिहासिक केस को लगभग नकार देना।

क्या कानून का शासन बचा है? अदालतों को सोचना होगा

एक लोकतांत्रिक राज्य में अगर भीड़ हत्या करे और सरकार उस भीड़ को बचाती चले, तो न्यायव्यवस्था किसके लिए है?
कानून किसके लिए है?
और संविधान का मूल्य क्या बचता है?

अभी भी वक्त है कि अदालतें इस मामले को सिर्फ “सरकारी अर्जी” न समझें, बल्कि इसे व्यापक सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ में देखें—क्योंकि सवाल केवल अखलाक का नहीं है, सवाल है कि क्या भारतीय नागरिक भीड़ से ज्यादा असुरक्षित हो चुके हैं।

मुकुल सरल

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