उत्तर प्रदेश के बयान और देश की दिशा: नफरत का सियासी इस्तेमाल और असर
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लगातार जारी भड़काऊ बयानों ने देश में एक खतरनाक सन्देश दिया है। यह सिर्फ व्यक्तिगत बयान नहीं रहे — ये वक्तव्यों की एक कड़ी हैं जो स्पष्ट रूप से अलगाव, डर और वैमनस्य को बढ़ावा देती हैं। सवाल यही है: मोदी सरकार और उनके सहयोगी मुख्यमंत्री देश को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं?
बयान और जमीन — खतरे की तस्वीर
जमीन पर जो हालात बन रहे हैं वे चिंताजनक हैं। बीते कुछ समय में बरेली और अन्य जगहों से ऐसी तस्वीरें आईं जहाँ बड़े पैमाने पर मुसलमानों को पीटा गया, गिरफ्तारी हुई और सार्वजनिक तौर पर भीड़ द्वारा नारे लगाकर, पोस्टर लगाकर एक सूचित संदेश दिया गया — कि कुछ समुदाय देश के “नागरिक” नहीं हैं या उनका हक कम है। ऐसे माहौल में प्रशासन की ओर से संकेतों का आना और ऊपरी नेतृत्व का मौन या सहानुभूतिपूर्ण टिप्पणी न करना स्थिति को और भड़काता है।
खेल का मैदान और राजनीति — Operation Sindoor का संदर्भ
खेल के मैदान को पॉलिटिक्स के मैंदान में बदलकर जो संदेश दिया जा रहा है, वह भी हतोत्साहित करने वाला है। एशिया कप के दौरान खेल को राष्ट्रीय विकल्प बताकर और उसे चुनावी/साम्प्रदायिक एजेंडे से जोड़कर एक विभाजनकारी कथा पर काम किया जा रहा है। खेल जहाँ एकता और टीम भावना का प्रतीक होना चाहिए, वहां राजनीतिक वक्तव्यों के माध्यम से विभाजन की हवा चलाना खतरनाक निहितार्थ रखता है — विशेषकर जब वो वक्तव्य शीर्ष नेताओं की ओर से आ रहे हों।
आर्थिक रूख और नफरत नीति — दोहरा मानक
रोज़गार, निवेश और मॉलों के उद्घाटन जैसी गतिविधियों में मुसलमानों के साथ आर्थिक रिश्ते तो व्यवहारिक रूप से बनाए जा रहे हैं, पर जब चुनावी और पब्लिक पॉलिटिक्स की बारी आती है, तो वही लोग जिनके साथ कारोबार किया जा रहा था, उन्हें “जिहादी” या “अगला खतरा” बताने की भाषा अपनाई जाती है। यह दोहरा मानक समाज में असमानता और अविश्वास को बढ़ाता है।
आग एक मकान तक सीमित नहीं रहती
एक समुदाय के खिलाफ भड़की नफरत का असर सिर्फ उसी समुदाय पर नहीं रुकता — जब आग लगती है तो पूरा मोहल्ला जलता है। ऐतिहासिक रूप से भी, सांप्रदायिक भड़काने वाले बयान असंतुलन, पलायन, आर्थिक नुकसान और दीर्घकालिक सामाजिक दरारों का कारण बनते रहे हैं। इसलिए ऐसे वक्तव्यों को सामान्य राजनीति या “कठोर भाषा” के रूप में टालकर नहीं देखा जा सकता — इनका सामूहिक नुकसान बहुत बड़ा होता है।
निष्कर्ष — संभाल और पहचान की ज़रूरत
संविधान और क़ानून की अपनी जगह है, पर असल चुनौती यह है कि सत्ता जब सार्वजनिक मंचों से नफरत और विभाजन का संदेश देने लगे, तो नागरिकता, समावेश और सुरक्षा की परिभाषा कमजोर पड़ जाती है। हमारी ज़िम्मेदारी शोध, आवाज़ उठाने और लोकतांत्रिक ढंग से इन बातों का विरोध करने की है — ताकि देश की एकता और नागरिकों की सुरक्षा बनी रहे।