मोदी का स्वतंत्रता दिवस भाषण – इतिहास का अपमान और इतिहास से छेड़छाड़?
आजादी का दिन हर भारतीय के लिए गर्व का क्षण होता है। यह दिन केवल झंडा फहराने और औपचारिक भाषणों का नहीं, बल्कि उन तमाम शहीदों को याद करने का अवसर है जिनके बलिदान ने हमें गुलामी से मुक्ति दिलाई। लेकिन 2025 के स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लाल किले से दिया गया भाषण इतिहास और राजनीति के एक नए विवाद में उलझ गया है।
प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का खुलेआम गुणगान किया। उन्होंने इसे “दुनिया का सबसे बड़ा NGO” बताया और “RSS के लाखों स्वयंसेवकों के बलिदान” का जिक्र किया। सवाल यह है कि जिस संगठन पर गांधी की हत्या के बाद तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने प्रतिबंध लगाया था, उसी संगठन को आज प्रधानमंत्री लाल किले से क्यों महिमामंडित कर रहे हैं?
सरदार पटेल बनाम मोदी की RSS प्रशंसा
इतिहास गवाह है कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद पटेल ने साफ तौर पर RSS को जिम्मेदार ठहराते हुए उस पर प्रतिबंध लगाया। मोदी सरकार ने पटेल की मूर्ति “स्टैच्यू ऑफ यूनिटी” बनाई, लेकिन उसी पटेल की चेतावनियों को दरकिनार करते हुए RSS की तारीफ करना विडंबना नहीं तो और क्या है?
प्रधानमंत्री का यह बयान न केवल पटेल की राजनीतिक विरासत का विरोधाभास है, बल्कि आजादी की लड़ाई में RSS की अनुपस्थिति को ढकने की कोशिश भी लगता है।
गांधी के बगल में सावरकर – प्रतीकात्मक राजनीति का खेल
मोदी सरकार के कार्यकाल में एक और विवाद सामने आया—जहां स्वतंत्रता दिवस के विज्ञापन में महात्मा गांधी की तस्वीर के साथ विनायक दामोदर सावरकर को बराबरी पर, बल्कि उनसे ऊँचा दिखाया गया।
याद कीजिए, सावरकर पर गांधी की हत्या के षड्यंत्र में आरोपी होने का आरोप रहा है। उनका “माफी नामा” (काला पानी की सजा के दौरान अंग्रेजों से दया याचना) भी सार्वजनिक दस्तावेज है। ऐसे व्यक्ति को गांधी के साथ खड़ा करना, और वह भी स्वतंत्रता दिवस के मौके पर, न केवल गांधी का अपमान है बल्कि उन तमाम शहीदों का भी जिन्होंने बिना माफी मांगे अपने प्राणों की आहुति दी।
पत्रकार प्रभाष जोशी ने वर्षों पहले लिखा था—
“कितने स्वयंसेवक अंग्रेजों की गोलियों से मरे? कितने फाँसी पर चढ़े? हिंदुत्ववादियों से हाथ में हथियार उठाकर एक निहत्था, अहिंसक गांधी ही मारा गया।”
प्रधानमंत्री मोदी के भाषण को इसी पंक्ति की कसौटी पर रखकर देखना जरूरी है।
RSS और तिरंगे का विरोध – 2001 का केस
प्रधानमंत्री ने RSS को राष्ट्रभक्त बलिदानी संगठन बताया, लेकिन क्या यह ऐतिहासिक तथ्य नहीं कि 2001 तक नागपुर मुख्यालय में RSS ने तिरंगा फहराना स्वीकार नहीं किया?
26 जनवरी 2001 को तीन युवाओं ने जब वहां तिरंगा फहराने की कोशिश की, तो उनके खिलाफ पुलिस केस दर्ज हुआ। अदालत ने हस्तक्षेप कर आदेश दिया कि तिरंगे की गरिमा का सम्मान किया जाए।
यानी RSS ने देश की आजादी के 50 साल बाद मजबूरी में तिरंगे को अपनाया। तो फिर आज उसे स्वतंत्रता संग्राम का “सबसे बड़ा बलिदानी संगठन” बताना क्या जनता को गुमराह करना नहीं है?
घुसपैठिया और डेमोग्राफिक बदलाव – लाल किले से चुनावी जुमले
इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में “घुसपैठियों” और “डेमोग्राफिक बदलाव” का मुद्दा भी उठाया। आजादी का दिन, जहां एकता और भाईचारे का संदेश होना चाहिए, वहां यह भाषा विभाजनकारी और चुनावी नारे जैसी लगी।
सवाल उठता है—
- अगर वास्तव में “घुसपैठ” हो रही है तो 2014 से सत्ता में बैठी मोदी सरकार और गृहमंत्रालय क्या कर रहे थे?
- क्यों प्रधानमंत्री ने अपने ही शासन की विफलताओं की जिम्मेदारी लेने के बजाय जनता के मन में डर बोने की कोशिश की?
- क्या लाल किले का प्राचीर अब चुनावी रैलियों का मंच बन चुका है?
कांग्रेस सांसद मनोज झा ने इसे “डॉग विसलिंग” और “इतिहास के साथ खिलवाड़” बताया। उनका कहना है कि प्रधानमंत्री आजादी जैसे पवित्र दिन पर भी पार्टी एजेंडे और नफरत भरी राजनीति से ऊपर नहीं उठ पाए।
निष्कर्ष – आजादी के पर्व पर इतिहास का अपमान
स्वतंत्रता दिवस वह दिन है जब देश के शहीदों को नमन किया जाता है, जब राजनीति से ऊपर उठकर प्रधानमंत्री राष्ट्र को दिशा देने की बात करते हैं। लेकिन मोदी का 2025 का भाषण RSS की महिमा गाथा, सावरकर की तस्वीर और घुसपैठियों के डर तक सिमट गया।
यह भाषण हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या अब आजादी का पर्व भी राजनीतिक एजेंडे की भेंट चढ़ गया है? क्या गांधी और पटेल की विरासत को RSS की छवि चमकाने के लिए दरकिनार किया जाएगा?
प्रधानमंत्री मोदी ने शायद यह भूल गए कि लाल किले का प्राचीर सत्ता की ताकत दिखाने का नहीं, बल्कि आजादी के मूल्यों और संविधान की आत्मा को सशक्त करने का मंच है।