अब तालिबान-India भी भाई -भाई | मोदी राज का कमाल, अब भक्तों का क्या होगा हाल!
भारत ने काबुल में फुल फ्लेज्ड दूतावास खोलने की तैयारी शुरू कर दी है। वही तालिबान, जिसे योगी और भक्त ‘गाली’ की तरह इस्तेमाल करते थे, अब मोदी सरकार की कूटनीतिक प्राथमिकता बन गया है। सवाल यह है कि क्या विदेश में मुसलमान ‘दोस्त’ और देश के भीतर ‘दुश्मन’?
जिस तालिबान का नाम सुनते ही भारतीय टीवी स्टूडियो में एंकरों की नसें तन जाती थीं, आज उसी तालिबान के विदेश मंत्री को भारत में लाल कालीन बिछाकर स्वागत किया जा रहा है। काबुल में भारत का दूतावास दोबारा खुलने जा रहा है—जी हाँ, वही काबुल जहाँ आज भी तालिबानी शासन है।
यह वही तालिबान है, जिसे योगी आदित्यनाथ ने कभी ‘सभ्यता के दुश्मन’ कहकर पुकारा था, और समाजवादी पार्टी के नेता जब उसके समर्थन में बोले तो जेल भेज दिए गए थे। लेकिन अब तालिबान का विदेश मंत्री मुत्तकी उत्तर प्रदेश जा रहा है—योगी के राज्य में। बुलडोज़र अब नहीं चल रहा, बल्कि ‘राजनयिक स्वागत’ हो रहा है।
🧩 घरेलू नफरत बनाम अंतरराष्ट्रीय दोस्ती
मोदी-योगी राज में मुसलमानों के घर गिराए जाते हैं, मॉल में नमाज़ पढ़ने पर मुकदमे दर्ज होते हैं, और सोशल मीडिया पर इस्लामोफोबिया का जहर फैलाया जाता है। लेकिन जब बात आती है विदेश नीति की—तो तालिबान भी ‘भाई’ बन जाता है, अफगानिस्तान ‘पुराना दोस्त’।
विदेश मंत्री एस. जयशंकर की प्रेस कॉन्फ्रेंस में यही संदेश साफ झलकता है:
भारत तालिबान सरकार के साथ “फुली कमिटेड कोऑपरेशन” की दिशा में बढ़ रहा है। भारत वहां न सिर्फ़ दूतावास खोलेगा बल्कि छह नए स्वास्थ्य प्रोजेक्ट, 20 एंबुलेंस, MRI, कैंसर दवाएं और जल पुनर्निर्माण योजनाएं भी शुरू करेगा।
याद रहे—भारत ने यह सब एक ऐसी सरकार के साथ किया है जिसे उसने आज तक आधिकारिक रूप से मान्यता नहीं दी। फिर भी व्यावसायिक, खनन और पुनर्निर्माण के नाम पर अब दोनों देशों के बीच नए अध्याय की शुरुआत हो रही है।
🔥 भक्तों के लिए ‘फील गुड’ पल
यह वही भक्त वर्ग है जो सोशल मीडिया पर “तालिबान = आतंकवाद” लिखकर तालिबान के नाम पर मुसलमानों को गाली देता था। अब वही भक्त तालिबान के साथ भारत की ‘दोस्ती’ को राष्ट्रभक्ति बताने पर आमादा हैं।
भारत की इस नई कूटनीति से स्पष्ट है—जब व्यापार और अंतरराष्ट्रीय हित सामने आते हैं, तब धर्म, दुश्मनी और नफरत सब ‘ऑफलाइन’ हो जाते हैं।
तालिबान की महिला-विरोधी नीतियों की आलोचना तो अब भी की जा सकती है, लेकिन मोदी सरकार ने उसे कूटनीतिक मित्र के रूप में स्वीकार कर लिया है। जयशंकर की मुस्कुराहट में वह पूरा यू-टर्न साफ दिखाई देता है, जिसे भक्त वर्ग अभी पचा नहीं पा रहा।
🕊️ अंतरराष्ट्रीय राजनीति की विडंबना
अफगानिस्तान पर हाल ही में मॉस्को में हुई उच्च स्तरीय बैठक में भारत ने रूस, चीन, उज्बेकिस्तान और यहां तक कि पाकिस्तान के साथ मिलकर दस्तावेज़ पर साइन किया—जिसमें अफगानिस्तान की स्थिरता और अमेरिका की वापसी का समर्थन किया गया।
यानी एक तरफ़ भारत पाकिस्तान को दुश्मन नंबर वन बताता है, दूसरी तरफ़ उसके साथ मिलकर तालिबान के समर्थन में हस्ताक्षर करता है।
यही है कूटनीति की वह विडंबना, जिसे भक्त समझने से इनकार करते हैं।
💰 व्यापार की भाषा, नफरत की राजनीति
भारत और अफगानिस्तान की ‘नई दोस्ती’ का असली केंद्र बिंदु है—खनन और व्यापार। अफगानिस्तान में दुर्लभ खनिज संपदा (लिथियम, तांबा, सोना) को लेकर भारतीय कंपनियों की दिलचस्पी तेज़ है।
यही कारण है कि तालिबान के साथ अब बातचीत ‘धर्म’ नहीं, ‘डॉलर’ की भाषा में हो रही है।
जो तालिबान कभी टीवी बहसों में ‘गाली’ था, वह अब भारत के आर्थिक एजेंडे का अहम हिस्सा बन गया है। यही है आधुनिक भारत की डिप्लोमेसी—जहाँ दोगलेपन का नाम है “राष्ट्रीय हित”।
📍 निष्कर्ष:
भक्तों की दुनिया में अब एक नई परिभाषा गढ़ी जा रही है—
“देश के मुसलमान = दुश्मन, विदेश के मुसलमान = व्यापारिक पार्टनर।”
यही मोदी-जयशंकर युग की सबसे बड़ी कूटनीतिक हिपोक्रेसी है।
भारत और तालिबान की बढ़ती निकटता यह याद दिलाती है कि इंटरनेशनल पॉलिटिक्स में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता, बस स्थायी हित होते हैं—और फिलहाल भारत के हित तालिबान से जुड़ चुके हैं।