🕊️ नोबल शांति पुरस्कार और सच्चाई: नेतन्याहू की भी घोर समर्थक मारिया कोरिना मचाडो क्या वाकई लोकतंत्र की चैंपियन हैं?
10 अक्टूबर को जब स्वीडिश नोबेल कमेटी ने 2025 का नोबल शांति पुरस्कार वेनेजुएला की विपक्षी नेता मारिया कोरिना मचाडो को देने की घोषणा की, तो पूरी दुनिया में बधाइयों की बाढ़ आ गई। कई लोग—यहां तक कि भारत के प्रगतिशील वर्ग के कुछ हिस्से भी—उन्हें लोकतंत्र की रक्षक, तानाशाही के खिलाफ आवाज़ और “फ्रीडम फाइटर” बताने लगे।
लेकिन कुछ ही घंटों में मचाडो का पूरा कच्चा-चिट्ठा सामने आने लगा—और शायद यह पहली बार है जब नोबेल शांति पुरस्कार को लेकर दुनिया भर में इतना व्यापक विरोध देखने को मिल रहा है।
🎭 लोकतंत्र की चैंपियन या साम्राज्य की प्रतिनिधि?
नोबेल कमेटी ने अपने बयान में कहा कि “मारिया कोरीना मचाडो ने दिखाया है कि लोकतंत्र के औज़ार ही शांति के औज़ार हैं।” लेकिन सवाल यह है कि क्या वाकई ऐसा है?
मचाडो उसी राजनैतिक धारा से आती हैं, जो अमेरिकी साम्राज्यवाद की सबसे प्रखर समर्थक रही है। वेनेजुएला के राष्ट्रपति निकोलस मादुरो तीन बार जनता द्वारा चुने जा चुके हैं, लेकिन अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के लिए वे हमेशा “तानाशाह” रहे हैं—क्योंकि उन्होंने तेल, खनिज और अर्थव्यवस्था पर निजी कंपनियों की पकड़ कमजोर की।
इसी पृष्ठभूमि में मचाडो को शांति का नोबेल पुरस्कार देना न सिर्फ़ विरोधाभासी, बल्कि एक राजनीतिक संदेश भी है—कि विश्व व्यवस्था अब भी उसी पुरानी औपनिवेशिक मानसिकता से चल रही है।
📜 इस्राइल का समर्थन और ग़ाज़ा पर चुप्पी
मचाडो की विचारधारा का असली चेहरा उनके सार्वजनिक बयानों से साफ़ झलकता है। एक वीडियो में वे इस्राइल की खुलकर तारीफ़ करती दिखाई देती हैं। इतना ही नहीं—उन्होंने इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू, जो ग़ाज़ा में नरसंहार के आरोपों में घिरे हैं, को वेनेजुएला में “हस्तक्षेप” करने और मादुरो सरकार गिराने में मदद का निमंत्रण दिया।
क्या कोई ऐसा व्यक्ति, जो अपने ही देश पर बाहरी हमला बुलाने की अपील करता हो, शांति का प्रतीक कहा जा सकता है?
💬 ट्रम्प की बधाई और ‘शांति’ का व्यंग्य
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने मचाडो को “फ्रीडम फाइटर” कहा।
अब यह समझना मुश्किल नहीं कि ट्रम्प के लिए “स्वतंत्रता सेनानी” कौन होते हैं—वे जो अमेरिकी हितों को आगे बढ़ाते हैं। यही कारण है कि कई टिप्पणीकार व्यंग्य में पूछ रहे हैं—
“क्या आने वाले वर्षों में हिटलर को भी मरणोपरांत नोबेल शांति पुरस्कार दिया जाएगा?”
🏆 नोबल समिति की राजनीति
मचाडो अब उसी कतार में शामिल हैं, जिसमें हेनरी किसिंजर, बराक ओबामा, अबी अहमद जैसे विवादास्पद विजेता रहे हैं—जिन्होंने अपने कार्यकाल में युद्धों या आक्रामक नीतियों को जन्म दिया।
ब्रिटिश बुद्धिजीवी तारीक अली ने लिखा है कि नोबेल समिति अब Peace Prize नहीं बल्कि War Prize बन चुकी है।
उन्होंने व्यंग्य में लिखा—
“ट्रम्प साहब, माफ़ कीजिए—इस बार आपको नहीं मिला, पर आपकी समर्थक मचाडो को दे दिया गया है।”
💣 तेल, निजीकरण और साम्राज्यवादी हित
मचाडो की राजनीति का केंद्रबिंदु वेनेजुएला के तेल भंडारों का निजीकरण है—जो दुनिया के सबसे बड़े हैं, और जिनकी कीमत लगभग 100 ट्रिलियन डॉलर आंकी जाती है।
यही वह आर्थिक कारण है, जिसके चलते अमेरिका और यूरोप मचाडो को “लोकतंत्र की रक्षक” कहकर पेश कर रहे हैं—क्योंकि असल में वे पूंजीवादी हितों की संरक्षक हैं।
🕌 मुस्लिम संगठनों और मानवाधिकार समूहों का विरोध
अमेरिका के सबसे बड़े मुस्लिम नागरिक अधिकार संगठन CAIR National ने इस फैसले की कड़ी निंदा की है।
उन्होंने कहा—
“नोबेल शांति पुरस्कार ऐसे व्यक्ति को मिलना चाहिए जो सभी मनुष्यों के लिए न्याय और समानता के लिए खड़ा हो, न कि उन नेताओं को जो अपने देश में लोकतंत्र की बात करते हुए विदेशों में नस्लवाद और फासीवाद का समर्थन करते हों।”
CAIR ने नोबेल समिति से अपील की है कि यदि मचाडो लिकूड पार्टी और इस्लाम विरोधी यूरोपीय ताकतों से अपना समर्थन वापस नहीं लेतीं, तो समिति को अपना निर्णय पुनः विचार करना चाहिए।
📚 साहित्यिक नोबेल भी विवादों में
सिर्फ़ शांति पुरस्कार ही नहीं—इस बार साहित्य के नोबेल विजेता ने भी इस्राइल के समर्थन में बयान दिया है।
यह संयोग नहीं—बल्कि यह दिखाता है कि अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक और मानवीय संस्थाओं में भी साम्राज्यवादी प्रभाव कितनी गहराई तक पैठ चुका है।
🪧 निष्कर्ष: पुरस्कार हो या सज़ा, उसकी राजनीति समझिए
मारिया कोरीना मचाडो को दिया गया नोबेल शांति पुरस्कार दरअसल वेनेजुएला और लैटिन अमेरिका के वामपंथी आंदोलनों के खिलाफ एक राजनीतिक संदेश है—एक बार फिर समाजवाद को “तानाशाही” और पूंजीवाद को “लोकतंत्र” की तरह पेश करने का प्रयास।
इसलिए, “पुरस्कार हो या सज़ा, ताली बजाने से पहले दो मिनट ठहरिए और उसकी राजनीति समझिए।”