ओमप्रकाश वाल्मीकि आज भी क्यों बने हुए हैं इतने प्रासंगिक
✊ दलित चेतना के अमर साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि को सलाम! वह जिंदा होते तो 75 बरस के हो गए होते।
30 जून 1950 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर ज़िले के बरला गांव में जन्मे ओमप्रकाश वाल्मीकि का साहित्य आज भी दलित समाज और हर इंसाफ पसंद इंसान के लिए प्रेरणा है।
आज के दौर में, जब दलितों पर अत्याचार चरम पर हैं – घोड़ी पर चढ़ने या बाबा साहब की तस्वीर रखने तक पर पिटाई और हत्या हो रही है – ओमप्रकाश वाल्मीकि का लेखन और ज्यादा जरूरी हो गया है।
📚 ‘जूठन’: दलित जीवन की अमर गाथा
वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ ने हिंदी साहित्य में एक क्रांतिकारी हस्तक्षेप किया।
उन्होंने लिखा कि किस तरह दलितों को दूसरों की बची-खुची जूठन खाने को मजबूर किया जाता था, कैसे जातिगत भेदभाव और हिंसा उनकी जिंदगी का हिस्सा रही।
आज ‘जूठन’ सिर्फ भारत ही नहीं, विदेशों के कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम का हिस्सा है।
🖋️ केवल आत्मकथा नहीं, बहुमुखी साहित्यिक योगदान
- कविता संग्रह: ‘सदियों का संताप’, ‘बस, अब और नहीं’
- कहानी संग्रह: ‘सलाम’, ‘घुसपैठिए’
- नाटक: ‘दो चेहरे’ (नाटककार और निर्देशक के रूप में भी सक्रिय)
ओमप्रकाश वाल्मीकि का साहित्य दलित साहित्य का आधार स्तंभ है।
वे सही मायनों में अंबेडकरवादी लेखक थे जिनकी लेखनी में बाबा साहब के विचार झलकते हैं।
वे जाति को इंसानियत के खिलाफ सबसे बड़ी बुराई मानते थे और उनके लेखन में मानवीय गरिमा और आत्म-सम्मान का संघर्ष केन्द्रीय मुद्दा रहा।
🎤 ‘ठाकुर का कुआं’: उनकी अमर कविता
उनकी यह कविता आज भी हमारे समाज की सच्चाई को नंगा करती है:
ठाकुर का कुआं
चूला मिट्टी का, मिट्टी ठाकुर की
तालाब ठाकुर का, भूख रोटी की
रोटी बाजरे की, बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का, बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का, हल की मूठ पर हथेली अपनी
फसल ठाकुर की
कुआं ठाकुर का, पानी ठाकुर का
खेत खलियान ठाकुर का
गली मोहल्ला ठाकुर का
फिर अपना क्या?
गांव शहर देश?
💡 निचोड़
ओमप्रकाश वाल्मीकि आज भले हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनका लेखन दलितों, वंचितों और हर इंसाफ पसंद इंसान के संघर्ष में मशाल की तरह जलता रहेगा।