October 6, 2025 10:13 am
Home » समाज-संस्कृति » देश व समाज को बांटने का एजेंडा लेकर ही हमेशा आगे बढ़ा संघ

देश व समाज को बांटने का एजेंडा लेकर ही हमेशा आगे बढ़ा संघ

आरएसएस के 100 साल पर विशेष विश्लेषण—संगठन की उत्पत्ति, हिंदुत्व परियोजना, समाज पर असर और लोकतंत्र की चुनौतियों पर गहन पड़ताल।

RSS के सौ साल: हिंदुत्व एजेंडा, समाज पर असर और लोकतंत्र की चुनौतियां

हमने पिछली बार संघ के संगठन की उत्पत्ति और विकास पर चर्चा की थी। इस बार हम आरएसएस की संपूर्ण राजनीति, उसके एजेंडे और समाज पर पड़े प्रभावों की पड़ताल कर रहे हैं।

आरएसएस की विचारधारा और शुरुआती सफर

आरएसएस की स्थापना आज़ादी के आंदोलन के समानांतर एक वैकल्पिक धारा के रूप में हुई। इसे सवर्ण ब्राह्मणवादी नेतृत्व ने हिंदुत्व और “हिंदू राष्ट्र” की परिकल्पना के साथ खड़ा किया। यह संगठन संविधान की बुनियादी मूल्यों—स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व—के खिलाफ खड़ा रहा। आरएसएस ने अपने मुख्यालय पर 52 साल तक तिरंगा तक नहीं फहराया और इसे सार्वजनिक तौर पर राष्ट्रवादी संगठन के रूप में स्वीकृति पाने में लंबा समय लगा।

गांधी हत्या ने संगठन की छवि को लंबे समय तक धूमिल रखा। लेकिन आपातकाल और जयप्रकाश नारायण आंदोलन के बाद इसकी प्रतिष्ठा बनी और धीरे-धीरे चुनावी राजनीति में इसकी जड़ें मजबूत हुईं।

शाखाएं, संगठन और समाज में पकड़

आज आरएसएस की 82,000 से अधिक शाखाएं और हज़ारों प्रचारक हैं। इनकी कार्यशैली केवल शाखाओं तक सीमित नहीं रही; इन्होंने समाज के हर हिस्से में अपने संगठन खड़े किए—अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ, वनवासी कल्याण आश्रम, भारतीय किसान संघ जैसे संगठन इसी परियोजना का हिस्सा हैं।

दलित, आदिवासी, महिला और मजदूर वर्ग तक पहुँचने की कोशिश भी इन्हीं संगठनों के जरिये की गई। लेकिन उनकी मूल रणनीति मुस्लिम और ईसाई समुदाय के खिलाफ नफरत फैलाकर सामाजिक ध्रुवीकरण करना रही।

शिक्षा और विकास बनाम आरएसएस का एजेंडा

आज़ादी के बाद पंडित नेहरू के नेतृत्व में शिक्षा, स्वास्थ्य और विज्ञान का विस्तार हुआ। भाखड़ा नंगल बांध, आईआईटी, आईआईएम, एम्स और इसरो जैसे संस्थानों ने भारत को नई पहचान दी। संविधान ने दलितों, महिलाओं और आदिवासियों को आगे लाने का रास्ता खोला।

इसके समानांतर आरएसएस ने अपना एजेंडा आगे बढ़ाया—राम मंदिर आंदोलन, मुस्लिम शासकों का दानवीकरण, “लव जिहाद”, “गौ रक्षा”, “कोरोना जिहाद” जैसे प्रोपेगेंडा इसके उदाहरण हैं।

ध्रुवीकरण और सत्ता की राजनीति

1990 के दशक से लेकर 2014 के बाद तक आरएसएस-भाजपा ने सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत की। ध्रुवीकरण, दंगे और भीड़ lynching की घटनाओं ने अल्पसंख्यकों को हाशिए पर धकेल दिया। आज मुसलमान नागरिक दूसरे दर्जे की स्थिति में जीने को मजबूर हैं।

इतिहास और पाठ्यपुस्तकों में बदलाव, वैज्ञानिक सोच के खिलाफ आस्था आधारित ज्ञान का प्रचार, मीडिया पर कॉर्पोरेट-सरकारी नियंत्रण—ये सभी कदम आरएसएस के “हिंदू राष्ट्र” की दिशा में बढ़ते प्रभाव को दर्शाते हैं।

बाबा, धर्म और राजनीति

रामदेव, आशाराम, गुरमीत राम रहीम और बागेश्वर धाम जैसे “धार्मिक गुरुओं” को भी आरएसएस-भाजपा ने वैधता दी। इससे धर्म और राजनीति का गठजोड़ और गहराया।

प्रतिरोध की राह

आज सबसे बड़ा सवाल है—इस एजेंडे का मुकाबला कैसे हो? इसके लिए चार प्रमुख कदम ज़रूरी हैं:

  1. झूठे प्रोपेगेंडा का विरोध – इतिहास और धर्म के नाम पर फैलाई जा रही गलतफहमियों का खंडन।
  2. लेखकों, बुद्धिजीवियों और आंदोलनों को मज़बूत करना – जो सत्य और मेल-जोल की संस्कृति को आगे बढ़ा रहे हैं।
  3. सामाजिक आंदोलनों को जोड़ना – किसान आंदोलन, शाहीन बाग, या हाल के वोटर लिस्ट घोटाले के खिलाफ उठी आवाज़ें—इन सबको लोकतंत्र और संविधान के साझा मंच पर लाना।
  4. आज़ादी के मूल्यों को पुनर्जीवित करना – भगत सिंह, अंबेडकर, गांधी और मौलाना आज़ाद जैसे नेताओं की विरासत को आधार बनाकर सामाजिक चेतना को पुनर्निर्मित करना।

निष्कर्ष

भारत का लोकतंत्र और संविधान लगातार चुनौतियों के घेरे में हैं। आरएसएस की हिंदुत्व परियोजना ने समाज में गहरी दरारें डाली हैं। लेकिन इतिहास गवाह है कि जब-जब नफरत की ताकतें हावी हुईं, तब-तब प्रेम, एकजुटता और प्रतिरोध ने ही समाज को नया रास्ता दिखाया। आज जरूरत है उसी रास्ते पर चलने की।

राम पुनियानी

View all posts

ताजा खबर