December 18, 2025 12:25 am
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विकास के नाम पर वनभूमि की लूट

मोदी सरकार के दौर में भारत दुनिया में जंगल कटान में दूसरे नंबर पर पहुंच गया है। अडानी समेत कॉर्पोरेट घरानों को वनभूमि सौंपने, नियम-कानूनों की अनदेखी और विकास के नाम पर पर्यावरण विनाश की पूरी पड़ताल।

प्रदूषण से मचा हाहाकार लेकिन जंगल काटने में India दुनिया में टॉप पर

जब संसद में बहसें तेज़ हैं और देश की राजधानी दिल्ली समेत कई बड़े शहर सांस लेने के लिए जूझ रहे हैं, उसी वक्त जंगलों के विनाश से जुड़े जो आंकड़े सामने आ रहे हैं, वे बेहद डराने वाले हैं। सरकार एक तरफ़ ‘एक पेड़ माँ के नाम’ जैसे भावनात्मक नारों के ज़रिए पर्यावरण संरक्षण का दावा करती है, और दूसरी तरफ़ पूरे-के-पूरे जंगल कॉरपोरेट घरानों को सौंपे जा रहे हैं।

यह कहना सिर्फ़ हमारा नहीं है। अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट बताती हैं कि भारत जंगल और पेड़ कटान के मामले में दुनिया में दूसरे नंबर पर पहुंच चुका है, पहले नंबर पर ब्राज़ील है। यूके की एक संस्था द्वारा किए गए विश्लेषण के मुताबिक़ 2015 से 2020 के बीच भारत में 6,68,400 पेड़ काटे गए, और यह सब नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में हुआ। इसके बाद के वर्षों में हालात और भी बदतर हुए हैं, जहां जंगल कटान एक तरह से अंधाधुंध अभियान में बदल गया है।

गुजरात से कच्छ तक: जंगल और कॉर्पोरेट दोस्ती

गुजरात से जुड़ी हालिया रिपोर्ट्स इस पूरी तस्वीर को और साफ़ करती हैं। रिपोर्टर्स कलेक्टिव की पत्रकार तपस्या द्वारा किए गए खुलासे बताते हैं कि कैसे प्रधानमंत्री मोदी के परम मित्र अडानी समूह को कच्छ जैसे घने वन क्षेत्र में बड़े पैमाने पर ज़मीन दी गई।

बताया जाता है कि अडानी ने दिल्ली से भी बड़े क्षेत्रफल जितनी वनभूमि की मांग की और सरकार ने उसे विकास के नाम पर मंज़ूरी दे दी। अडानी पावर प्रोजेक्ट लिमिटेड, मुंद्रा पावर प्लांट और अन्य परियोजनाओं के लिए 18 से 24 किलोमीटर तक फैले घने जंगलों को चुटकियों में हरी झंडी दे दी गई

गूगल इमेज और सैटेलाइट तस्वीरें साफ़ दिखाती हैं कि किस तरह एक सतत वन क्षेत्र को टुकड़ों में काटकर कॉर्पोरेट प्रोजेक्ट्स के हवाले कर दिया गया। यह वही सरकार है जिसने अपनी तथाकथित ग्रीन क्रेडिट योजना के ज़रिए देश-दुनिया को भरोसा दिलाया था कि वह जंगलों और पर्यावरण की रक्षा करेगी। लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि इन योजनाओं को खुद सरकार ने ही समुद्र में डुबो दिया।

नियम-कानूनों की बलि

इन परियोजनाओं के लिए पर्यावरणीय नियमों, वन अधिकार कानूनों और स्थानीय लोगों की आपत्तियों को एक-एक कर किनारे कर दिया गया। शुरू में स्थानीय स्तर पर विरोध भी हुआ, क्योंकि यह इलाका घना जंगल था और जैव-विविधता से भरपूर था, लेकिन कॉर्पोरेट विकास के आगे हर आपत्ति बौनी साबित हुई।

असल में इस दौर में कॉर्पोरेट का विकास ही ‘देश का विकास’ घोषित कर दिया गया है। जंगल कट रहे हैं, पहाड़ खोदे जा रहे हैं, और इसकी कीमत आम नागरिक चुका रहा है—प्रदूषण, जल संकट, जलवायु परिवर्तन और सांस की बीमारियों के रूप में।

सिर्फ गुजरात नहीं, पूरे देश का हाल

यह कहानी सिर्फ़ गुजरात तक सीमित नहीं है।

  • मध्य प्रदेश के सिंगरौली में लाखों पेड़ काटे जा रहे हैं, जहां फिर वही बड़े कॉर्पोरेट हित सक्रिय हैं।
  • राजस्थान के हनुमानगढ़ और डीग-भरतपुर इलाकों में औद्योगिक परियोजनाओं के खिलाफ़ किसानों और स्थानीय लोगों की महापंचायतें हुईं। लोगों का साफ़ कहना है कि ये फैक्ट्रियां न तो ज़मीन के पक्ष में हैं, न पर्यावरण के, और न ही इंसानों के।
  • अरावली पर्वत श्रृंखला, जो दिल्ली से राजस्थान तक फैली है और पूरे उत्तर भारत के लिए फेफड़ों की तरह काम करती है, उसे भी धीरे-धीरे खत्म करने की तैयारी हो चुकी है।

दिक्कत यह है कि इन मुद्दों पर न तो मुख्यधारा मीडिया में पर्याप्त चर्चा होती है और न ही संसद में प्रदूषण और जंगल कटान को गंभीरता से उठाया जाता है। अगर कभी चर्चा होती भी है, तो वह ज़्यादातर विपक्ष की तरफ़ से।

झूठ कितने दिन छुपेगा?

सरकार की रणनीति साफ़ है—झूठ बोलो, झूठ बोलो और झूठ बोलते रहो। लेकिन सवाल यह है कि झूठ आखिर कब तक छुपेगा? रिपोर्ट्स, सैटेलाइट इमेज, ज़मीनी आंदोलन और पर्यावरणीय तबाही—सब कुछ सच्चाई बयान कर रहा है।

आज देश में जो विकास हो रहा है, वह आम लोगों का नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री के दोस्तों का विकास है।

एक तरफ़ नारा लगता है—एक पेड़ माँ के नाम, और दूसरी तरफ़ हकीकत यह है—पूरा जंगल कॉरपोरेट दोस्तों के नाम

यही है मोदी सरकार के दौर का पर्यावरणीय विकास मॉडल।

भाषा सिंह

1971 में दिल्ली में जन्मी, शिक्षा लखनऊ में प्राप्त की। 1996 से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।
'अमर उजाला', 'नवभारत टाइम्स', 'आउटलुक', 'नई दुनिया', 'नेशनल हेराल्ड', 'न्यूज़क्लिक' जैसे
प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों

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