तमिलनाडु व गुजरात में 1 करोड़ 71 लाख वोट कटे, योगेंद्र यादव ने कहा लोकतंत्र खतरे में
मोदी राज में बुल्डोज़र को एक नया नाम मिला है—S.I.R. (Special Intensive Revision)। यह वह प्रक्रिया है जिसे ‘वोटर लिस्ट का शुद्धिकरण’ कहा जा रहा है, लेकिन ज़मीनी सच्चाई इससे उलट है। देश के अलग-अलग राज्यों से आ रहे आंकड़े और अनुभव बता रहे हैं कि SIR, मतदाता सूची को दुरुस्त करने के बजाय बड़े पैमाने पर नाम काटने और नागरिकों को वोट के अधिकार से वंचित करने का औज़ार बनता जा रहा है।
तमिलनाडु और गुजरात: आंकड़े जो चीख-चीख कर सवाल पूछते हैं
तमिलनाडु में SIR के बाद 97 लाख मतदाताओं के नाम ड्राफ्ट वोटर लिस्ट से हटा दिए गए। राज्य में कुल मतदाता लगभग 6 करोड़ 41 लाख हैं—यानी हर छठा मतदाता प्रभावित। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें से लगभग 36% नाम सिर्फ़ चेन्नई से कटे हैं। राजधानी में इतनी बड़ी संख्या में नाम हटना किसी ‘रूटीन अपडेट’ से कहीं आगे की कहानी कहता है।
गुजरात में भी 74 लाख नाम हटाए जाने की खबरें सामने आई हैं। यह वही राज्य है जहाँ तीन दशकों से बीजेपी की सरकार है। अगर इतनी बड़ी ‘गड़बड़ी’ थी, तो फिर पिछले चुनावों में ये नाम किस आधार पर वोट करते रहे?
‘मास डी-फ्रेंचाइज़ेशन’: वोट छीनने की प्रक्रिया
देश भर में SIR के दौरान लोगों की जुबान पर एक शब्द बार-बार सुनाई दे रहा है—Mass Disenfranchisement। यानी बड़ी संख्या में लोगों को वोट डालने के अधिकार से वंचित करना। तमिलनाडु और गुजरात के आंकड़े इस आशंका को ठोस आधार देते हैं कि यह प्रक्रिया उन मतदाताओं को निशाना बना रही है, जिनके बारे में सत्ताधारी दल को डर है कि वे उसे वोट नहीं देंगे।
चुनाव से पहले क्यों?
याद रहे, तमिलनाडु में कुछ ही महीनों में विधानसभा चुनाव होने हैं। राज्य में DMK-कांग्रेस गठबंधन की सरकार है, और यह इलाका आरएसएस-बीजेपी के ‘भगवा एजेंडे’ के लिए हमेशा चुनौती रहा है। ऐसे में चुनाव से ठीक पहले करोड़ के करीब नामों का कटना, राजनीतिक मंशा पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
बिहार का सबक: शुद्धिकरण का झूठ
बिहार में SIR के बाद सामने आए तथ्यों ने ‘शुद्धिकरण’ के दावे की पोल खोल दी। फाइनल लिस्ट में:
- 75,000 ऐसे नाम पाए गए जिनके आगे पूरा नाम ही नहीं था (X, Y, Z जैसे)।
- करीब 5 लाख डुप्लीकेट वोट पाए गए।
- कई नाम तेलुगु और कन्नड़ जैसी भाषाओं में दर्ज मिले।
अगर SIR शुद्धिकरण था, तो ये खामियां कैसे बचीं?
योगेंद्र यादव के चार बड़े सवाल
राजनीतिक विश्लेषक योगेंद्र यादव ने SIR को लेकर चार बड़े झूठों की पहचान की:
- यह शुद्धीकरण नहीं है – वोटर लिस्ट की गलतियां सुधारने के बजाय लोगों पर दोबारा दस्तावेज़ साबित करने का दबाव है।
- यह कभी नहीं हुआ था – आज़ादी के बाद पहली बार ऐसा हो रहा है कि पहले से दर्ज मतदाताओं से फिर से फॉर्म भरवाए जा रहे हैं।
- घुसपैठिया तर्क खोखला है – बिहार में SIR के दौरान कोई ‘घुसपैठिया’ नहीं मिला। अगर यह मुद्दा इतना गंभीर है, तो असम में SIR क्यों नहीं?
- नागरिकता से खतरनाक जोड़ – वोटर लिस्ट को नागरिकता से जोड़ने की कोशिश हो रही है, जबकि चुनाव आयोग को किसी की नागरिकता तय करने का अधिकार ही नहीं है।
उत्तर प्रदेश और खुली स्वीकारोक्ति
उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का एक बयान वायरल हुआ, जिसमें वे कहते हैं कि चार करोड़ नाम कट रहे हैं। सवाल यह है कि उन्हें यह जानकारी कैसे मिली? और यह कैसे तय हो गया कि ये ‘उनके’ लोग हैं? कन्नौज में बीजेपी के एक नेता का यह कहना कि ‘SIR ठीक से हो गया तो समाजवादी पार्टी को वोट देने वाला कोई नहीं बचेगा’, लोकतंत्र पर सीधा हमला है।
वोट से नागरिकता तक: खतरनाक फिसलन
SIR की प्रक्रिया में मतदाताओं पर यह दबाव बनाया जा रहा है कि वे दस्तावेज़ों से साबित करें कि वे कौन हैं। अगर नाम नहीं, तो मानो नागरिकता भी नहीं—यह सोच संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट कई बार साफ कर चुका है कि चुनाव आयोग नागरिकता तय नहीं कर सकता।
निष्कर्ष: लोकतंत्र की शक्ल बदलने की कोशिश
SIR का यह बुल्डोज़र सिर्फ़ वोटर लिस्ट पर नहीं, बल्कि देश के लोकतांत्रिक ढांचे पर चलाया जा रहा है। तमिलनाडु, गुजरात, बिहार और उत्तर प्रदेश से आ रही खबरें बताती हैं कि यह प्रक्रिया निष्पक्ष नहीं, बल्कि राजनीतिक रूप से निर्देशित है। सवाल यह नहीं कि नाम जुड़े या नहीं—सवाल यह है कि किसके नाम कटे, क्यों कटे और किसके फायदे के लिए कटे।
लोकतंत्र में वोट अधिकार नहीं, भीख नहीं हो सकता। SIR के नाम पर अगर यही हो रहा है, तो इसका विरोध ज़रूरी है।
