50 साल पुराने आंदोलनों की जांच, लोकतंत्र और सरकार की मंशा पर उठते सवाल
भारत को आज़ादी आंदोलनों के बल पर मिली थी। लेकिन आज वही आंदोलन सरकार को खटकने लगे हैं। गृह मंत्री अमित शाह ने हाल ही में आदेश दिया है कि 1974 के बाद से अब तक हुए सभी बड़े आंदोलनों की व्यापक जांच की जाए। यह काम पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ब्यूरो (BPRD) को सौंपा गया है। सवाल यह है कि जब संविधान हमें शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन का अधिकार देता है, तब सरकार आंदोलन से इतना डर क्यों रही है?
आंदोलन की जांच का एजेंडा
सरकार चाहती है कि आंदोलन से जुड़े पैटर्न, फंडिंग, संगठनों और परिणामों का पूरा खाका निकाला जाए।
- कौन आंदोलन के पीछे था?
- क्यों आंदोलन हुआ?
- इसमें कितना पैसा और किसका पैसा लगा?
- इसका असर क्या रहा?
जांच में राज्य पुलिस, CID, ED, FIU और CBDT तक शामिल होंगे। यानी आंदोलन को सिर्फ सुरक्षा नहीं बल्कि फंडिंग और साजिश के चश्मे से देखा जाएगा।
लोकतंत्र पर खतरे की आशंका
विशेषज्ञों का मानना है कि यह कवायद आंदोलन को खत्म करने और जनता की असहमति को कुचलने की कोशिश है।
- हर विरोध को “विदेशी साजिश” या “एंटी-नेशनल” ठहराना
- असहमति को देशविरोधी करार देना
- व्यक्तिवादी आज़ादी और असहमति के अधिकार को खत्म करना
आंदोलन का इतिहास और राजनीतिक रंग
1974 से अब तक भारत में कई बड़े आंदोलन हुए:
- जेपी आंदोलन (1974) – छात्रों से शुरू होकर राष्ट्रीय आंदोलन बना।
- आपातकाल विरोध (1975-77) – जिसमें आरएसएस और जनसंघ भी शामिल थे।
- कश्मीर, खालिस्तान, मंडल आयोग और आरक्षण विरोध आंदोलन – जिनमें राजनीतिक दलों ने खुला समर्थन किया।
- गुजरात दंगे (2002) और उसके खिलाफ खड़े आंदोलन – जिन्हें आज भी दबाने की कोशिशें जारी हैं।
- नर्मदा बचाओ आंदोलन (2006) – विस्थापन और विकास मॉडल के खिलाफ।
- अन्ना आंदोलन (2011-12) – भ्रष्टाचार और जनलोकपाल के लिए, जिसमें बीजेपी-आरएसएस का सीधा हाथ रहा।
- निर्भया आंदोलन (2012) – UPA सरकार के खिलाफ सबसे बड़ा जनआंदोलन।
- जेएनयू आंदोलन (2016) और भीमा कोरेगांव (2017) – जिन्हें मोदी सरकार ने ‘देशविरोधी’ करार दिया।
सवाल यह है कि क्या सरकार अपने समर्थित आंदोलनों की भी जांच कराएगी? या सिर्फ विपक्षी और असहमति वाले आंदोलनों को ही निशाना बनाएगी?
असली मकसद क्या?
विश्लेषकों का मानना है कि 2024 चुनाव में 400 पार का नारा देने के बावजूद भाजपा बहुमत से दूर रह गई। इसमें स्वतंत्र पत्रकारों, यूट्यूबरों और विपक्ष की भूमिका अहम रही। यही कारण है कि अब किसी भी नए आंदोलन को जन्म लेने से पहले ही दबाने की रणनीति बनाई जा रही है।
निष्कर्ष
1974 से अब तक के आंदोलनों की जांच का मकसद इतिहास को खंगालना नहीं, बल्कि भविष्य के हर असंतोष और असहमति को कुचलना है। सरकार आंदोलन को लोकतांत्रिक अधिकार नहीं, बल्कि साजिश मानने लगी है। यह लोकतंत्र की आत्मा के खिलाफ है।