केवल नाम नहीं बदल रही मोदी सरकार, उसकी अपनी नीयत भी बदल गई है
देखिए, सरकार की यह नाम बदलने की सनक कोई नई नहीं है, लेकिन हर बार इसका बोझ देश की जनता को ही उठाना पड़ता है। योजनाओं के नाम बदलने में करोड़ों रुपये खर्च होते हैं, लेकिन सवाल यह है कि इससे आम आदमी की ज़िंदगी में क्या बदलेगा? महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) को अब ‘जी-राम-जी’ में बदलने की तैयारी इसी राजनीति का ताज़ा उदाहरण है।
मनरेगा: योजना नहीं, अधिकार
मनरेगा कोई साधारण सरकारी योजना नहीं थी, बल्कि यह देश के सबसे गरीब नागरिकों को दिया गया रोज़गार का कानूनी अधिकार था। साल में सौ दिन के काम की गारंटी—यह आज़ादी के बाद पहली बार था जब राज्य ने साफ़ तौर पर कहा कि अगर वह काम नहीं देगा, तो उसे बेरोज़गारी भत्ता देना होगा।
लेकिन सरकार द्वारा लाया गया नया विधेयक इस अधिकार को ही कमजोर करता दिख रहा है। नाम बदलने के साथ-साथ इसकी आत्मा बदलने की कोशिश की जा रही है।
‘जी-राम-जी’: नाम के पीछे की राजनीति
सरकार का दावा है कि सिर्फ नाम बदला जा रहा है, लेकिन असलियत कहीं ज़्यादा गंभीर है। नए प्रस्ताव के तहत ग्रामीण मज़दूरों को सिर्फ सात दिन तक बेरोज़गारी भत्ते जैसी व्यवस्था का संकेत दिया जा रहा है। यानी 365 दिनों में सिर्फ सात दिन की ‘गारंटी’।
इसका सीधा मतलब यह है कि:
- खेती के पीक सीज़न में मज़दूरों को किसी तरह की रोज़गार गारंटी नहीं मिलेगी
- मज़दूरों की बर्गेनिंग पावर खत्म होगी
- बड़े ज़मींदारों और फार्म हाउस मालिकों के सामने वे और ज़्यादा मजबूर होंगे
मनरेगा उन लोगों को चुभता रहा है जिनके पास बड़े खेत और संसाधन हैं, क्योंकि इससे ग्रामीण मज़दूरों को एक न्यूनतम सुरक्षा मिलती थी।
संसद में विरोध और गांधी का सवाल
लोकसभा में इस बिल पर जबरदस्त हंगामा हुआ। प्रियंका गांधी ने सरकार से तीखा सवाल किया—
“महात्मा गांधी देश के राष्ट्रपिता हैं। उनके नाम से आपको इतनी तकलीफ क्यों है? इस नाम को मिटाने में करोड़ों रुपये खर्च किए जा रहे हैं। अगर यही पैसा ग्रामीण भारत पर खर्च कर दिया जाता, तो सच में अच्छे दिन आ गए होते।”
यह सवाल सिर्फ नाम का नहीं है, बल्कि उस विचारधारा का है जिसमें गांधी का नाम, श्रम का सम्मान और अधिकार आधारित कानून खटकते हैं।
केंद्र–राज्य फंडिंग में बदलाव: एक और वार
2005 में जब मनरेगा कानून बना था, तब:
- 90% फंड केंद्र सरकार देती थी
- 10% फंड राज्य सरकारों का होता था
अब सरकार चाहती है कि:
- केंद्र सिर्फ 60% दे
- राज्यों पर 40% का बोझ डाला जाए
जबकि सच्चाई यह है कि:
- GST के बाद राज्यों की आर्थिक हालत पहले ही खराब है
- खजाने खाली हैं
- ऐसे में मनरेगा जैसी योजना चलाना राज्यों के लिए लगभग असंभव हो जाएगा
बजट कटौती और भुगतान रोकने की राजनीति
पिछले 11 वर्षों में मोदी सरकार ने लगातार मनरेगा के बजट में कटौती की है। कई राज्यों में मज़दूरों को महीनों तक मज़दूरी नहीं मिली।
पश्चिम बंगाल का उदाहरण सामने है, जहां संसद सदस्यों के मुताबिक करीब 55,000 करोड़ रुपये का मनरेगा भुगतान केंद्र सरकार ने रोक रखा है। नतीजा—लाखों ग्रामीण परिवार रोज़गार से वंचित।
‘हर हाथ को काम दो’ से ‘काम ही मत दो’ तक
मनरेगा 2005 में ‘हर हाथ को काम दो, काम का पूरा दाम दो’ के नारे के साथ संसद से पारित हुआ था। तब कांग्रेस और बीजेपी—दोनों ने इसका समर्थन किया था। इसे भारत का पहला रोज़गार गारंटी कानून बताया गया।
लेकिन बीते एक दशक में जिस तरह से इसे कमजोर किया गया, उससे साफ़ था कि सरकार देर-सबेर मनरेगा को खत्म करने की दिशा में जाएगी। ‘जी-राम-जी’ उसी प्रक्रिया का अगला कदम है।
निष्कर्ष: नाम बदलने से सच नहीं बदलता
मनरेगा का नाम बदलकर ‘जी-राम-जी’ करना सिर्फ एक प्रशासनिक फैसला नहीं, बल्कि यह रोज़गार के अधिकार को खत्म करने की वैचारिक कोशिश है। सवाल यह नहीं है कि योजना का नाम क्या होगा, सवाल यह है कि:
- क्या गरीब को काम मिलेगा?
- क्या काम की गारंटी बचेगी?
- क्या मज़दूर सम्मान के साथ जी पाएगा?
अगर जवाब ‘नहीं’ है, तो चाहे नाम कुछ भी रख लीजिए—यह लोकतंत्र और सामाजिक न्याय दोनों की हार होगी।
