November 14, 2025 7:28 pm
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कयामुद्दीन अंसारी की उम्मीदवारी और गरीब की राजनीति का सवाल

CPI(ML) उम्मीदवार कयामुद्दीन अंसारी आरा विधानसभा से तीसरी बार मैदान में हैं। टूटी सड़कों, बेरोज़गारी और पलायन के बीच यह रिपोर्ट दिखाती है कि गरीब उम्मीदवार की राजनीति किस तरह सत्ता से सवाल कर रही है।

बिहार के सबसे ग़रीब उम्मीदवार को भरोसा, जनता उन्हें आरा सीट से जीत दिलाएगी

आरा की गलियों में बजबजाती नालियां हैं, सड़कें टूटी हुई हैं, हर मोड़ पर कूड़े का ढेर है और सरकारी अस्पतालों की दीवारों पर बदबू फैलती है। बीस साल से सत्ता में बैठी सरकारें दावा करती रही हैं कि “बदलाव” हुआ है — लेकिन आरा के लोग पूछते हैं, “तब भी आरा को मिला क्या?”

यही सवाल लेकर चुनावी मैदान में फिर उतरे हैं कयामुद्दीन अंसारी, CPI(ML) के उम्मीदवार, जिन्हें इस बार भी बिहार का सबसे गरीब उम्मीदवार कहा जा रहा है। उनके घर की दीवारों पर चुनावी पोस्टर नहीं, बल्कि बच्चों की किताबें और पुरानी अख़बारें टंगी हैं।

गरीबी से निकला एक उम्मीदवार

कयामुद्दीन अंसारी का जन्म भोजपुर जिले के गड़हनी ब्लॉक के हदियाबाद गांव में एक भूमिहीन मज़दूर परिवार में हुआ। पिता मज़दूरी करते थे, मां बीड़ी बनाती थीं। वे बताते हैं —

“हमारे पास ज़मीन-जायदाद नहीं थी। दादा के हिस्से की ज़मीन भी बस कुछ डिसमिल भर थी। पढ़ाई गड़हनी के सरकारी स्कूल से की, फिर एम.ए. तक पहुँचे। लेकिन पढ़ना भी एक संघर्ष था।”

अंसारी कहते हैं कि राजनीति में उनका आना “मज़दूर की आवाज़ उठाने” के लिए हुआ, न कि कुर्सी पाने के लिए।

“गरीब का बेटा अगर लड़े, तो कहा जाता है— पागल है। अमीर लड़े तो नेता कहलाता है। लेकिन हमने ठान लिया है कि गरीब भी लड़ सकता है, जीत भी सकता है।”

तीसरी बार आरा से चुनाव मैदान में

कयामुद्दीन अंसारी लगातार तीसरी बार आरा सीट से मैदान में हैं। 2015 में पहली बार CPI(ML) की ओर से उम्मीदवार बने थे। 2020 में महागठबंधन (राजद, कांग्रेस, माले) ने उन्हें उम्मीदवार बनाया, और इस बार INDIA गठबंधन ने दोबारा उन पर भरोसा जताया है।

“2020 में हमने सशक्त मुकाबला किया था। लेकिन सरकारी षड्यंत्र से हमें हराया गया। आरा की जनता हमें हारा हुआ विधायक नहीं, जीता हुआ मानती है।”

वे कहते हैं कि इस बार का चुनाव थैली साहबों और गरीब की लड़ाई है —

“गरीबी कभी हमारी राजनीति में बाधा नहीं बनी। महागठबंधन ने मुझ पर भरोसा जताया, क्योंकि मेरे साथ आरा का किसान, मज़दूर, छात्र और बेरोज़गार खड़ा है।”

चार इंजनों की सरकार और तबाह आरा

अंसारी की सबसे बड़ी शिकायत है — चार इंजनों की सरकार ने आरा का सत्यानाश कर दिया

“एक सरकार विधायक की, दूसरी नगर निगम की, तीसरी पटना में और चौथी दिल्ली में। चारों इंजन हैं, फिर भी शहर की हालत देख लीजिए। एक हज़ार करोड़ का बजट है, लेकिन न सड़क बनी, न नाली। न शिक्षा सुधरी, न अस्पताल।”

वे बताते हैं कि आरा में एक भी अच्छी लाइब्रेरी नहीं है जहाँ बच्चे बैठकर पढ़ सकें।

“छात्र जेपी स्मारक या चर्च के पास खुले में बैठकर पढ़ते हैं। बारिश हो जाए तो किताबें भीग जाती हैं। भीख में वोट मांगने वाले नेताओं को बच्चों के पढ़ने की चिंता नहीं है।”

तीन करोड़ बेरोज़गार और पलायन की त्रासदी

कयामुद्दीन अंसारी के भाषणों में बेरोज़गारी और पलायन सबसे केंद्रीय मुद्दे हैं।

“तीन करोड़ बिहार के युवा आज दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता में पेट पाल रहे हैं। वो अपनी मेहनत से देश चलाते हैं, लेकिन बिहार की सरकार उन्हें ग़ैर-नागरिक कहती है। वोटर लिस्ट से नाम काट देती है।”

उनका कहना है कि अगर INDIA गठबंधन की सरकार बनी, तो युवाओं को बाहर जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी —

“हम घर में काम देंगे, यहीं रोज़गार देंगे। 2020 में महागठबंधन ने दस लाख नौकरियों का वादा किया था, और नितीश जी के मुख्यमंत्री बनने के बाद सत्रह महीनों में पाँच लाख युवाओं को नौकरी मिली। लेकिन बीजेपी को यह अच्छा नहीं लगा — और बुलडोज़र से खींचकर सरकार गिरा दी गई।”

जंगलराज का बहाना और ‘जलादों का राज’

जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘जंगलराज’ कहकर बिहार की पिछली सरकारों को घेरते हैं, तो कयामुद्दीन अंसारी पलटवार करते हैं —

“जंगलराज का शब्द गोदी मीडिया और बीजेपी ने गढ़ा है। असली हालत देखिए — कल ही आरा में एक बाप-बेटे की हत्या हुई। आज महिलाएं, दलित, बच्चे— कोई सुरक्षित नहीं। अगर किसी राज्य में अपराध सबसे ज़्यादा है, तो वो जलादों का राज है, न कि लोकतंत्र।”

धर्म नहीं, रोटी का सवाल

जब उनसे पूछा गया कि बीजेपी के नेता चुनाव में फिर से हिंदू-मुसलमान का मुद्दा उठा रहे हैं, तो वे मुस्कराकर कहते हैं —

“जब रोटी का सवाल पूछो, तो वो धर्म का सवाल खड़ा कर देते हैं। लेकिन जनता अब समझ गई है कि नफरत से पेट नहीं भरता।”

चुनावी नतीजा चाहे जो हो…

आरा के मोहल्लों में लोग कहते हैं — “कयामुद्दीन हारकर भी जीत जाते हैं।”
क्योंकि उनके अभियान में न चमकदार पोस्टर हैं, न करोड़ों का प्रचार। बस, कुछ नौजवान, लाल झंडे और उम्मीद कि राजनीति फिर जनता के हाथ में लौटेगी।

“गरीब के हक़ की राजनीति अगर जिंदा रहनी है, तो उसे आरा से आवाज़ मिलनी ही चाहिए।”

भाषा सिंह

1971 में दिल्ली में जन्मी, शिक्षा लखनऊ में प्राप्त की। 1996 से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।
'अमर उजाला', 'नवभारत टाइम्स', 'आउटलुक', 'नई दुनिया', 'नेशनल हेराल्ड', 'न्यूज़क्लिक' जैसे
प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों

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