October 22, 2025 2:57 pm
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जाति के कीड़े अब भी ज़िंदा हैं

दलित साहित्य के अग्रणी लेखक मोहंदास नैमिशराय हमारे समय की मनुवादी राजनीति और सामाजिक विडंबनाओं पर तीखी टिप्पणी करते हैं। वे कहते हैं — “मनुवादी कीड़े अब भी जीवित हैं।” इस खास बातचीत में वे मायावती की राजनीति, बुद्ध धर्म, जेल और जाति के सच, तथा दलित चेतना की नई परिभाषा पर बेबाकी से बोलते हैं।

मोहनदास नैमिशराय का शब्द-संघर्ष और मनुवादी समय की मुठभेड़

दलित साहित्य की दुनिया में मोहनदास नैमिशराय वह नाम हैं जिन्होंने अपने शब्दों से चुप्पियों को तोड़ा, और अपनी आत्मकथा “अपने अपने पिंजरे” के ज़रिए हिंदी दलित लेखन को एक ऐतिहासिक मुकाम दिया। सौ से अधिक पुस्तकों के लेखक, उपन्यासकार, कवि, नाटककार और पत्रकार — नैमिशराय जी का लेखन भारतीय समाज के भीतर छिपे उस “मनुवादी कीड़े” की पहचान कराता है, जो हर युग में रूप बदलकर ज़िंदा रहता है।

हमने उनसे समकालीन परिदृश्य, दलित साहित्य की यात्रा, बुद्ध धर्म और मायावती की राजनीति तक पर लंबी बातचीत की। इस बातचीत के केंद्र में एक ही प्रश्न था — क्या मनुवाद अब भी हमारे समय के भीतर सांस ले रहा है?

दलित चेतना की जड़ें और आज का समय

नैमिशराय जी मानते हैं कि भारत की सामाजिक रचना में परिवर्तन तो आया है, लेकिन मानसिक ढाँचा अब भी मनु के ग्रंथों से मुक्त नहीं हो पाया।

“हम नई शताब्दी में हैं, पर व्यवस्था के पालक अब भी मनु के हिसाब से चल रहे हैं। चाहे कोई जज हो, मंत्री हो या प्रधानमंत्री — दलित को ऊँचे पद पर देखना बहुतों के लिए असह्य है।”

वे मानते हैं कि न्यायपालिका से लेकर समाज के हर स्तर तक यह गहरी जड़ें जमाए मानसिकता आज भी दलित अस्तित्व को बराबरी से देखने को तैयार नहीं। यही कारण है कि CJI बी.आर. गवई पर हुए जूता-फेंक प्रकरण या हरियाणा में आत्महत्या को मजबूर हुए IPS अधिकारी जैसे प्रसंग, एक ही चेतावनी देते हैं — “सत्ता बदली है, मन नहीं।”

मायावती और सत्ता की भूख

राजनीति की दिशा पर बोलते हुए नैमिशराय जी बेहद स्पष्ट हैं। वे बताते हैं कि 1970 के दशक में जब वे बहुजन संगठक साप्ताहिक के संपादक थे, मायावती एक युवा शिक्षिका थीं। उन्होंने मायावती को नज़दीक से देखा और लिखा भी है।

“मायावती आरंभ में क्रांतिकारी थीं, लेकिन जैसे-जैसे आदमी सत्ता के नज़दीक पहुँचता है, वह समझौता-परस्त होता चला जाता है। मायावती को अब सिर्फ सत्ता चाहिए — किसी भी कीमत पर।”

नैमिशराय का यह कथन सिर्फ किसी व्यक्ति की आलोचना नहीं, बल्कि एक पूरी प्रक्रिया का खुलासा है — वह प्रक्रिया जिसमें आंदोलनकारी चेतना सत्ता की भूख में रूपांतरित हो जाती है।

दलित साहित्य की वैश्विक गूंज

नैमिशराय अपने साहित्यिक जीवन को सिर्फ लेखन नहीं, बल्कि सामाजिक आंदोलन का विस्तार मानते हैं। वे याद करते हैं कि कैसे मैं भंगी हूँ जैसी आत्मकथाओं से लेकर उनकी अपने अपने पिंजरे तक ने हिंदी समाज में दलित अनुभव की नई भाषा दी।

“आज अमेरिका, जर्मनी, कनाडा, स्वीडन की यूनिवर्सिटियों में हमारी रचनाएँ पढ़ाई जा रही हैं। दलित साहित्य ने सिर्फ भारत नहीं, दुनिया को भी बदला है।”

उनके लिए लेखन का अर्थ है – अपने समाज की आत्मा को दस्तावेज़ बनाना। वे कहते हैं, “दलितों को अपने पिंजरे से निकलकर दूसरों के घरों, शहरों और धड़कनों को पहचानना चाहिए। तभी परिवर्तन होगा।”

बुद्ध धर्म, अनुशासन और 22 प्रतिज्ञाएँ

बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के बौद्ध धर्म ग्रहण की परंपरा को नैमिशराय व्यक्तिगत और राजनीतिक दोनों अर्थों में आगे बढ़ाते हैं। मेरठ में बाबा साहब के भाषण की याद करते हुए वे बताते हैं कि उनके परिवार ने अम्बेडकर भवन के निर्माण के लिए चंदा दिया था।

“बुद्ध धर्म व्यक्ति के जीवन को अनुशासित करने का सबसे सुंदर माध्यम है। वहाँ जाति का कोई स्थान नहीं।”

वे मानते हैं कि बाबा साहब की 22 प्रतिज्ञाएँ कठिन अवश्य हैं, पर उनका पालन आज भी हजारों लोग कर रहे हैं — विशेषकर महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में।

“शहरों में पालन थोड़ा कम है, लेकिन गाँवों और बौद्ध विहारों में लोग आज भी सुबह साढ़े चार बजे उठकर अनुशासित जीवन जीते हैं।”

नैमिशराय बताते हैं कि आज देश में सौ से अधिक भारतीय महिलाएँ बौद्ध भिक्षुणी बन चुकी हैं — “बुद्ध धर्म आज भी स्त्रियों को आत्म-सम्मान और विचार की स्वतंत्रता दे रहा है।”

जेल, जाति और ‘निज़ाम’

अपने नवीनतम उपन्यास “निज़ाम” के बारे में वे कहते हैं कि यह जेल जीवन की कहानी है — लेकिन जेल को वे भारत के सामाजिक ढाँचे का रूपक मानते हैं।

“जेल के भीतर भी जाति है। सफाई कर्मी समुदाय का कैदी सफाई ही करता है, चाहे वह चाहे या न चाहे। 90% कैदी निरपराध हैं, लेकिन व्यवस्था उन्हें अपराधी बना देती है।”

इस उपन्यास के माध्यम से वे यह सवाल उठाते हैं कि क्या भारत का न्यायिक ढाँचा सच में समानता पर आधारित है, या वह भी मनुवादी संरचना का हिस्सा बन चुका है?

मनुवाद और संविधान पर संकट

जब बात आई संविधान पर, नैमिशराय ने एक बेहद तीखी टिप्पणी की —

“संविधान को जलाने वाले मनुवादी थे। देश आज़ाद हो गया, पर मनुवादी कानून चलते रहे। ये जहरीले कीड़े हैं, जो हर जगह अपने साथ जातिवाद की बीमारी लेकर जाते हैं।”

उन्होंने बताया कि कनाडा, जर्मनी और स्वीडन जैसी जगहों पर भी जब दलित साहित्य पढ़ाने की कोशिश की गई, तो सबसे ज़्यादा विरोध भारत के ही जातिवादी लोगों ने किया।

“जहाँ भी मनुवादी लोग जाते हैं, अपने भीतर के कीड़े साथ ले जाते हैं — वही कीड़े आज लोकतंत्र के भीतर रेंग रहे हैं।”

निष्कर्ष: शब्द जो चेतना जगाते हैं

मोहनदास नैमिशराय की लेखनी केवल पीड़ा का बयान नहीं, वह उस पीड़ा से उपजे स्वाभिमान का दस्तावेज़ है। उनकी कहानियाँ, आत्मकथाएँ और उपन्यास बताते हैं कि दलित साहित्य केवल साहित्य नहीं — यह भारत के सामाजिक पुनर्जन्म की प्रक्रिया है।

उनकी यह चेतावनी हमारे समय के लिए अंतिम पंक्ति जैसी है —

“दलित साहित्य ने भारत को आत्मा दी है, लेकिन मनुवादी कीड़े अब भी जीवित हैं। उनसे लड़ना ही लेखन का असली अर्थ है।”

राज वाल्मीकि

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