क्यों गये कांग्रेस नेता रायबरेली में मारे गये दलित हरिओम के घर और असम में ज़ुबिन गर्ग को श्रद्धांजलि देने!
राहुल गांधी की राजनीति इस समय देश में एक नए मोड़ पर खड़ी है। सत्रह अक्टूबर 2025 की दो तस्वीरें — एक रायबरेली की और दूसरी असम की — न सिर्फ उनके राजनीतिक सफर की दिशा दिखाती हैं, बल्कि यह भी बताती हैं कि वह किस तरह एक भावनात्मक और नैतिक राजनीति को स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं।
रायबरेली में दलित मजदूर हरिओम वाल्मीकि के परिवार से मिलना और उसी दिन असम के लोकप्रिय गायक जुबिन गर्ग के अंतिम संस्कार में शामिल होना — ये दोनों घटनाएं बिहार चुनाव के बीच में एक बड़े राजनीतिक संकेत बनकर उभरी हैं। सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी की यह ‘संवेदना की राजनीति’ बिहार के चुनावी समर को प्रभावित कर सकती है?
रायबरेली: दलित उत्पीड़न के खिलाफ खड़ा नेता प्रतिपक्ष
राहुल गांधी जब हरिओम वाल्मीकि के परिवार से मिले, तो उन्होंने सिर्फ एक संवेदना जताई नहीं, बल्कि एक राजनीतिक स्टैंड लिया। हरिओम वाल्मीकि की लिंचिंग उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था और योगी आदित्यनाथ सरकार की जातिगत असंवेदनशीलता की प्रतीक बन चुकी है।
वीडियो में दिखाया गया कि कैसे परिवार को डराकर जबरन बयान दिलवाया गया कि राहुल गांधी न आएं। बावजूद इसके राहुल पहुंचे, और बोले —
“यह परिवार अकेला नहीं है, न्याय दिलाना हमारी जिम्मेदारी है।”
यह बयान महज सांत्वना नहीं, बल्कि बीजेपी की दलित विरोधी नीतियों के खिलाफ एक सीधी चुनौती है। यही संदेश जब बिहार जैसे जाति-संवेदनशील राज्य में पहुंचता है, तो उसका असर चुनावी हवा पर होना तय है।
असम: संवेदना और एकजुटता की राजनीति
उसी दिन राहुल गांधी असम पहुंचे — जहां देशभर के प्रिय गायक जुबिन गर्ग के निधन पर शोक की लहर थी। वहां जाकर उन्होंने जो कहा, वह राजनीति से आगे का संदेश था:
“मैं परिवार से दोबारा मिलना चाहता हूं जब यह गहरा दुख थोड़ा कम हो जाए — मैं उनके साथ हूं।”
यह वाक्य उस राजनीति की ओर इशारा करता है जो मानवता को प्राथमिकता देती है, न कि धर्म, जाति या वोट गणित को। राहुल गांधी का यह कदम भारत के उत्तर और पूर्व के बीच एक भावनात्मक पुल बनाता है — जो शायद आने वाले समय में उनकी सबसे बड़ी ताकत साबित हो।
बिहार चुनाव और इन दो तस्वीरों का असर
बिहार का चुनावी मैदान हमेशा सामाजिक न्याय और जातिगत चेतना से प्रभावित रहा है। राहुल गांधी की ये दो यात्राएं, दलित न्याय और संवेदना के दो प्रतीक बनकर, बिहार के मतदाताओं के बीच एक नया विमर्श खड़ा करती हैं —
क्या राजनीति अब सिर्फ विकास और हिंदुत्व के नारों पर नहीं, बल्कि न्याय और संवेदना की बुनियाद पर तय होगी?
जब योगी आदित्यनाथ बिहार में रैली कर रहे हैं और अपनी उपलब्धियां गिना रहे हैं, तब राहुल गांधी का एक दलित परिवार के साथ खड़ा होना और एक असमिया गायक के अंतिम संस्कार में शामिल होना — इस चुनावी मुकाबले में एक बिल्कुल अलग टोन सेट करता है।
यह वही राहुल गांधी हैं जिन्होंने कुछ समय पहले दलित आईपीएस अधिकारी पूरन कुमार के परिवार से भी मुलाकात की थी और जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज़ उठाई थी। इन तमाम घटनाओं को जोड़ें तो एक स्पष्ट पैटर्न दिखता है — राहुल गांधी “मानवता और न्याय आधारित राजनीति” को धीरे-धीरे भारतीय राजनीति के केंद्र में ला रहे हैं।
निष्कर्ष:
राहुल गांधी की ये दो यात्राएं महज़ संयोग नहीं हैं। ये उस राजनीति की घोषणा हैं जो संवेदना, न्याय और एकजुटता पर आधारित है।
जहां एक ओर बीजेपी सत्ता और प्रचार की राजनीति कर रही है, वहीं राहुल गांधी जमीन पर एक अलग भाषा बोल रहे हैं — इंसानियत की।
अब यह बिहार के मतदाताओं पर निर्भर करेगा कि वे इस भाषा को सुनते हैं या नहीं, लेकिन इतना तय है कि इस बार राहुल गांधी की तस्वीरें राजनीति के मानचित्र पर गहरी छाप छोड़ गई हैं।