October 22, 2025 3:00 pm
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कला, खास तौर पर नृत्य समाज को जोड़ने का काम करते हैं, जीवन देते हैं!

पूर्वा धनश्री के साथ खास बातचीत: जानिए विलासिनी नाट्यम और भरतनाट्यम में अंतर, आधुनिक डांसरों की दृष्टि और नृत्य के सामाजिक संदेश।

आधुनिक संदर्भ और सामाजिक विमर्श से भी जुड़ सकती है विलासिनी नाट्यम जैसी पारंपरिक कला – पूर्वा धनश्री

नृत्य केवल शरीर का प्रदर्शन नहीं है; यह संवेदनाओं, इतिहास, और सामाजिक संदेशों का एक जीवंत मंच है। इसी मंच की यात्रा हमें आज पूर्वा धनश्री के साथ लेकर चलती है। भरतनाट्यम और विलासिनी नाट्यम दोनों में पारंगत पूर्वा, नृत्य के भीतर प्रयोग और सामाजिक विमर्श को समान महत्व देती हैं। उनका कहना है कि कला हमें जोड़ती है, विभाजन नहीं करती।

विलासिनी नाट्यम: देवदासी परंपरा का आधुनिक स्वर

विलासिनी नाट्यम तेलुगु देवदासी परंपरा से उत्पन्न एक नृत्य शैली है, जिसे 1995 के आसपास “विलासिनी” नाम दिया गया। पूर्वा के अनुसार, पहले इसे दासी आटम, भोगम आटम, या साणी आटम कहा जाता था। लेकिन समय के साथ इन शब्दों का सामाजिक अर्थ विकृत हो गया। “विलासिनी” नाम ने इस कला की लिरिकल, ग्रेसफुल और सौंदर्यपूर्ण विशेषताओं को समेट लिया।

पूर्वा कहती हैं, “इस कला में शारीरिक भाषा बहुत ही सौम्य और लिरिकल है। जब आप इसे देखते हैं, तो आपको कलाकार के भाव और आत्म-अनुभव का स्पष्ट अनुभव होता है।”

भरतनाट्यम और विलासिनी नाट्यम: दो अलग दिशाएँ

पूर्वा धनश्री के अनुसार, भरतनाट्यम और विलासिनी नाट्यम दो बिल्कुल अलग शैली हैं। भरतनाट्यम तमिलनाडु की पारंपरिक शैली है, जबकि विलासिनी नाट्यम आंध्रप्रदेश और तेलंगाना की देवदासी परंपरा से जुड़ी है।

“दोनों की मुद्राएँ, हाव-भाव, और शरीर की भाषा अलग है। विलासिनी में लिरिकल और ग्रेसफुल एक्सप्रेशन अधिक है, जबकि भरतनाट्यम में विशिष्ट शारीरिक संरचना और शैलीगत नियम हैं। यह समझना जरूरी है कि दोनों शैलियाँ बहनें नहीं हैं, बल्कि दो अलग भाषाएँ हैं, जो अपने अनुभव और भावनाओं को अलग तरीके से व्यक्त करती हैं।”

पूर्वा ने यह भी बताया कि आज भी विलासिनी नाट्यम को सरकारी मान्यता नहीं मिली है। ICCR या दूरदर्शन में ग्रेडेशन, स्कॉलरशिप्स और फेस्टिवल अवसरों में इसे उतनी जगह नहीं मिली जितनी इसे मिलनी चाहिए। फिर भी कलाकारों ने इसे अपनाया और इसे जीवंत बनाए रखा।

आधुनिक डांसर और समाज का प्रतिबिंब

आज के डांसर अधिक अवेयर हैं। वे केवल परंपरा का पालन नहीं करते, बल्कि सामाजिक मुद्दों, जैसे कि चाइल्ड ट्रैफिकिंग, कैंसर मरीजों की कहानियाँ, और अलगाव के अनुभव को अपने नृत्य में शामिल करते हैं।

पूर्वा कहती हैं, “कलाकार केवल नृत्य नहीं करता, वह समाज और आध्यात्मिकता का संदेश भी देता है। यह संदेश नफरत और भेदभाव के दौर में और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। चाहे आप किसी भी धर्म या समाज से हों, कला हमें समानता और प्रेम की अनुभूति कराती है।”

प्रेरणा और शिक्षक-छात्र का बंधन

पूर्वा के लिए उनके माता-पिता, कुबेर दत्त और कमलिनी दत्त जैसे कलाकार हमेशा प्रेरणा रहे हैं। उनके गुरुओं ने उन्हें कला की सतही तकनीक नहीं, बल्कि अनुभव और गहन अभ्यास की दिशा दिखाई।

“सच्चा गुरु आपको सिखाता है कि क्या सही है, क्या गलत। कला केवल प्रदर्शन नहीं, बल्कि आत्म-अनुभव और सरेंडर का माध्यम है। यही बच्चों और छात्रों के लिए सबसे महत्वपूर्ण सीख है।”

कला: जोड़ने का माध्यम

पूर्वा के अनुसार, आज की दुनिया में विभाजन अधिक है—धर्म, राजनीति और सामाजिक असमानता के कारण। लेकिन नृत्य और कला ऐसे माध्यम हैं जो जोड़ते हैं। वह मानती हैं कि कला हमें “एक समान प्लेटफॉर्म” पर लाती है, जहाँ अहिंसा, प्रेम और समानता का संदेश सबसे पहले आता है।

“हर कला का मूल संदेश यही है कि हम सब एक हैं। चाहे वह भरतनाट्यम हो, विलासिनी नाट्यम, या अन्य कोई शास्त्रीय कला, यह हमें जोड़ती है, तोड़ती नहीं।”

पूर्वा धनश्री का दृष्टिकोण स्पष्ट करता है कि भारतीय शास्त्रीय नृत्य केवल परंपरा का पालन नहीं है। यह समाज, संस्कृति और व्यक्तिगत अनुभव का एक जीवंत मंच है। विलासिनी नाट्यम के माध्यम से उन्होंने दिखाया कि कैसे पारंपरिक कला आधुनिक संदर्भ और सामाजिक विमर्श से जुड़ सकती है। उनके शब्दों में स्पष्ट है: कला का असली उद्देश्य है जोड़ना, अनुभव साझा करना, और भावनाओं की अभिव्यक्ति करना।

भाषा सिंह

1971 में दिल्ली में जन्मी, शिक्षा लखनऊ में प्राप्त की। 1996 से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।
'अमर उजाला', 'नवभारत टाइम्स', 'आउटलुक', 'नई दुनिया', 'नेशनल हेराल्ड', 'न्यूज़क्लिक' जैसे
प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों

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