December 30, 2025 12:04 am
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नेहरू आज भी मोदी जी को चैन से सोने नहीं देते

वैज्ञानिक और लेखक गौहर रज़ा का बेबाक इंटरव्यू: विज्ञान पर हमले, बाबाओं की राजनीति, RSS, अंधविश्वास, ट्रम्प-मोदी संबंध और भारत में वैज्ञानिक सोच के संकट पर विस्तृत बातचीत।

बाबाओं के आश्रमों में पले लोग अगर देश चलाएँगे, तो पहला क़त्लेआम विज्ञान का होगा – गौहर रज़ा

देश में विज्ञान, वैज्ञानिक सोच और तर्कबुद्धि पर हमले तेज़ हो चुके हैं।
राजनीति अब सिर्फ सत्ता की नहीं, आस्था, अंधविश्वास और नफ़रत के गठजोड़ की राजनीति बनती जा रही है। ऐसे समय में वैज्ञानिक, शायर और सामाजिक कार्यकर्ता गौहर रज़ा की किताब ‘मिथकों से विज्ञान तक’ का आना अपने आप में एक राजनीतिक हस्तक्षेप है।

बेबाक भाषा से इस विशेष बातचीत में गौहर रज़ा सिर्फ विज्ञान की बात नहीं करते, बल्कि यह भी बताते हैं कि कैसे आज की राजनीति सीधे-सीधे हमारे बच्चों, रोज़गार, शिक्षा और सोच को प्रभावित कर रही है।

“मेरी सारी पहचानें मिलकर ही मुझे पूरा इंसान बनाती हैं”

जब उनसे पूछा गया कि वे खुद को शायर मानते हैं, वैज्ञानिक या सामाजिक कार्यकर्ता—तो उनका जवाब सीधा और साफ़ था:

“अगर मेरी इन पहचानों में से एक भी अलग कर दी जाए, तो मैं अधूरा रह जाऊँगा। ये सारी पहचानें मिलकर ही मुझे पूरा इंसान बनाती हैं।”

गौहर रज़ा कहते हैं कि अक्सर उनसे पूछा जाता है—
आप वैज्ञानिक हैं, राजनीति पर क्यों बोलते हैं? आप शायर कैसे हो गए?

उनका जवाब और भी तीखा है:

“अगर आपको राजनीति की समझ नहीं है, तो आपको यह भी समझ नहीं है कि राजनीति विज्ञान के साथ क्या करने जा रही है।”

विज्ञान पर हमले राजनीति की देन हैं

गौहर रज़ा साफ़ तौर पर कहते हैं कि आज विज्ञान पर जो हमले हो रहे हैं, वे किसी “अज्ञान जनता” की वजह से नहीं, बल्कि राजनीतिक फैसलों की वजह से हैं।

UGC का विलय, संस्थानों का कमजोर किया जाना, पाठ्यक्रमों में बदलाव—
ये सब सीधे-सीधे उनके जीवन और काम को प्रभावित करते हैं।

वे एक उदाहरण देते हैं—
गुजरात के सूरत में डायमंड इंडस्ट्री पर अमेरिकी टैरिफ का असर।

“लोगों ने अपने बच्चों को स्कूल से निकाल लिया है। अब आप कहेंगे कि ट्रम्प ने जो किया, उसका सूरत से क्या लेना-देना? अगर आपको यह नहीं दिखता, तो आप अंधे हैं।”

राजनीति का मतलब सिर्फ चुनाव लड़ना नहीं है—
राजनीति का मतलब यह समझना है कि वैश्विक फैसले आम आदमी की ज़िंदगी को कैसे तोड़ते हैं।

मिथकों से विज्ञान तक… या विज्ञान से मिथकों की तरफ?

जब उनसे पूछा गया कि आज हालात उलटे क्यों दिखाई दे रहे हैं—
जहाँ विज्ञान पीछे जा रहा है और मिथक “विज्ञान” बनाकर पेश किए जा रहे हैं—
तो उनका जवाब बेहद सख्त है:

“इन लोगों के कंधे देश चलाने के लिए बने ही नहीं थे। बाबाओं के आश्रमों में पले लोग अगर देश की बागडोर संभालेंगे, तो पहला कत्लेआम विज्ञान का ही होगा।”

उनके अनुसार यह जिम्मेदारी जनता ने नहीं, सत्ता ने गलत हाथों में सौंप दी है।

क्या जनता सच में अंधविश्वासी हो रही है?

गौहर रज़ा इस सवाल पर एक महत्वपूर्ण तथ्य रखते हैं।
वे बताते हैं कि उन्होंने 30 साल तक कुंभ मेले में रिसर्च की है।

“आम जनता के बीच विज्ञान के प्रति सम्मान कम नहीं हुआ है। वैज्ञानिकों की आज भी बहुत इज्जत है। समस्या यह है कि राजनेता विज्ञान की इज्जत नहीं करते।”

वे 1995 के “गणेश दूध पीने” वाले कथित चमत्कार का उदाहरण देते हैं:

“सर्वे में सामने आया था कि सिर्फ 20% लोग सड़कों पर निकले थे। हमारी नजर 80% पर नहीं जाती, हम सिर्फ उस 20% को देखते हैं।”

बाबा, बाज़ार और राजनीति

गौहर रज़ा के मुताबिक आज के बाबा सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि मार्केट एजेंट हैं।

“उनका प्रोडक्ट अंधविश्वास है। राजनीति और बाबाओं ने समझ लिया है कि दिमाग के irrational हिस्से को कैसे उभारा जाए।”

वे बताते हैं कि इंसान पूरी तरह तर्कशील नहीं होता—
किसी को कोई रंग, आवाज़ या कविता क्यों पसंद आती है, इसे विज्ञान भी नहीं समझा सकता।

यहीं से धार्मिक विश्वासों की जमीन बनती है—
और इसी जमीन पर नफ़रत और अंधविश्वास की राजनीति खड़ी की जाती है।

वैज्ञानिक चुप क्यों बैठे हैं?

यह सवाल गौहर रज़ा को सबसे ज्यादा परेशान करता है।

“प्लास्टिक सर्जरी, नाले की गैस, 2AB एक्स्ट्रा एनर्जी जैसी बातों पर ताली बजाते हुए वैज्ञानिक बैठे रहते हैं—यह मुझे अंदर तक हिला देता है।”

वे कहते हैं कि राजनीति से उन्हें शिकायत है,
लेकिन उससे ज़्यादा शिकायत उन पढ़े-लिखे लोगों से है जो जानते हुए भी सवाल नहीं पूछते।

फासीवाद, RSS और नफ़रत की राजनीति

गौहर रज़ा RSS को स्पष्ट रूप से फासीवादी ताकत मानते हैं।

“फासीवाद नफरत के आधार पर ही आगे बढ़ता है। विज्ञान सवाल पूछता है, और फासीवाद सवालों से डरता है।”

उनके मुताबिक जब नफ़रत और अंधविश्वास को मिलाकर राजनीति की जाती है,
तो सबसे पहले वैज्ञानिक सोच की हत्या होती है।

निष्कर्ष

यह बातचीत सिर्फ एक किताब पर चर्चा नहीं है—
यह आज के भारत में विज्ञान, राजनीति और समाज की टकराहट का दस्तावेज़ है।

गौहर रज़ा की चेतावनी साफ़ है:
अगर वैज्ञानिक सोच नहीं बची, तो लोकतंत्र भी नहीं बचेगा।

भाषा सिंह

1971 में दिल्ली में जन्मी, शिक्षा लखनऊ में प्राप्त की। 1996 से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।
'अमर उजाला', 'नवभारत टाइम्स', 'आउटलुक', 'नई दुनिया', 'नेशनल हेराल्ड', 'न्यूज़क्लिक' जैसे
प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों

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