फूलगोभी, नक्सलवाद और बदले की राजनीति: क्या है इस विचित्र प्रतीक के पीछे की कहानी?
जब फूलगोभी नफरत का प्रतीक बन जाए
मार्च 2025 में भारतीय जनता पार्टी की कर्नाटक इकाई ने एक पोस्टर जारी किया, जिसमें देश के गृहमंत्री अमित शाह ‘नक्सलवाद की समाप्ति’ की घोषणा करते हुए एक कब्र जैसे प्रतीक के ऊपर दोनों हाथों में फूलगोभी लिए हुए दिखाई देते हैं। कब्र पर लिखा है — “नक्सलिज्म, रेस्ट इन पीस” और ऊपर टैगलाइन है — “लोल सलाम कॉमरेड”।
पर सवाल यह है कि फूलगोभी का नक्सलवाद से क्या लेना-देना?
इस प्रतीक के पीछे की परतें एक परेशान करने वाली ऐतिहासिक सच्चाई से जुड़ती हैं — 1989 के भागलपुर दंगों में मुसलमानों के नरसंहार और उसके बाद उनके शवों पर बोई गई फूलगोभी की फसल। यह प्रतीक केवल सब्जी नहीं, बल्कि उस हिंसक सोच का हिस्सा बन गया है जो बदले और दमन की संस्कृति को महिमामंडित करती है।
फूलगोभी का विभत्स इतिहास: भागलपुर, 1989
27 अक्टूबर 1989, बिहार के भागलपुर ज़िले के लोगैन गांव में एक हिंसक भीड़ ने, कथित तौर पर पुलिस अधिकारी रामचंद्र सिंह के नेतृत्व में, 116 मुसलमानों की हत्या कर दी और उनके शवों को दफनाकर उस ज़मीन पर फूलगोभी की फसल बो दी गई।
इस घटना का खुलासा 21 नवंबर 1989 को हुआ, जब एडिशनल डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ए. के. सिंह राहत कार्य के लिए गांव पहुँचे। भागलपुर दंगा जांच आयोग की रिपोर्ट में इस त्रासदी का विस्तृत वर्णन मिलता है।
आज 35 साल बाद, जब बीजेपी द्वारा जारी किए गए एक पोस्टर में फूलगोभी को “नक्सलवाद के खात्मे” का प्रतीक बनाया गया, तो इसका सांकेतिक अर्थ साफ़ था — यह सांप्रदायिक नफरत और बदले की मानसिकता को एक प्रतीक के रूप में फिर से सक्रिय करने की कोशिश है।
नक्सलवाद या राजनीतिक बदले की कार्रवाई?
इस पोस्टर के जारी होने के समय एक और अहम घटना घटी — छत्तीसगढ़ के बीजापुर में 26 कथित माओवादी और आदिवासियों की हत्या। इसे सरकार की “एंटी-नक्सल ऑपरेशन” के रूप में प्रचारित किया गया, लेकिन तीनों प्रमुख वामपंथी पार्टियों ने इसे एक्स्ट्रा-ज्यूडिशियल किलिंग करार दिया।
- भाकपा (माले) महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने इसे “ठंडे दिमाग से की गई हत्याएं” कहा।
- भाकपा (सीपीआई) के डी. राजा ने इसे शर्मनाक और कानूनी प्रक्रिया की अवहेलना कहा।
- मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के महासचिव सीताराम येचुरी (उल्लेखित “बेबी”) ने भी इसकी तीखी आलोचना की।
महत्वपूर्ण बात यह है कि ये तीनों दल संसदीय राजनीति में भाग लेते हैं — वे माओवादी नहीं हैं। फिर भी, उनका यह विरोध केंद्र सरकार की बदले की भावना से प्रेरित कार्रवाई के खिलाफ था, और यह विरोध लोकतंत्र की रक्षा के लिए था।
कब्र, शव और अदालतें: ऑपरेशन का जश्न या संवेदनहीनता?
इस “ऑपरेशन” को जश्न की तरह प्रस्तुत किया गया। लेकिन जिनके परिजन मारे गए, उन्हें उनके शवों के लिए भी अदालत का दरवाज़ा खटखटाना पड़ा। यह केवल संवैधानिक प्रक्रिया का उल्लंघन नहीं, बल्कि मृतकों के प्रति भी अमानवीयता का उदाहरण है।
निष्कर्ष: फूलगोभी अब सिर्फ सब्ज़ी नहीं
फूलगोभी इस लेख में प्रतीक है — उस विचारधारा का जो हिंसा और सांप्रदायिकता को समाधान के रूप में पेश करती है।
बीजेपी कर्नाटक द्वारा जारी किया गया पोस्टर न केवल घोर असंवेदनशील है, बल्कि यह इस बात का भी संकेत है कि भारत में सत्ता कैसे इतिहास की त्रासदियों को भी अपने सांप्रदायिक नैरेटिव में पिरो कर प्रस्तुत करती है।