नेहरू के ख़िलाफ़ सरदार पटेल को खड़ा करने की राजनीति का फ़ायदा उसने उठाया है
पिछले कुछ वर्षों में RSS–BJP द्वारा एक संगठित प्रचार किया जा रहा है—जवाहरलाल नेहरू बनाम सरदार वल्लभभाई पटेल। इस प्रचार का उद्देश्य इतिहास को समझना नहीं, बल्कि उसे तोड़–मरोड़कर एक वैचारिक एजेंडा को आगे बढ़ाना है। सवाल यह नहीं है कि नेहरू और पटेल में मतभेद थे या नहीं, बल्कि सवाल यह है कि इन मतभेदों को आज क्यों और किस मकसद से उछाला जा रहा है?
आज़ादी के आंदोलन से दूरी और प्रतीक की तलाश
सबसे बुनियादी तथ्य यह है कि RSS और उसके सहयोगी संगठनों का आज़ादी के आंदोलन में कोई योगदान नहीं था। न भारत छोड़ो आंदोलन, न नमक सत्याग्रह, न ही जेल यात्राएँ—इन सबसे RSS पूरी तरह अनुपस्थित रहा।
आज, जब राष्ट्रवाद के नाम पर राजनीति की जा रही है, तो RSS–BJP को एक ऐसे प्रतीक की ज़रूरत है जो उन्हें आज़ादी के आंदोलन से जोड़ सके।
- गांधी को वे अपनाते नहीं, क्योंकि उनके विचारों से असहमति है और उन्हीं के एक पूर्व प्रचारक ने गांधी की हत्या की।
- नेहरू से उन्हें वैचारिक नफ़रत है, क्योंकि नेहरू धर्मनिरपेक्षता, संविधान, लोकतंत्र और बहुलता के प्रतीक हैं।
ऐसे में RSS को एक तीसरा विकल्प मिला—सरदार वल्लभभाई पटेल।
सरदार पटेल का ‘अप्रोप्रियेशन’: एक ऐतिहासिक छल
RSS सरदार पटेल को इस तरह प्रस्तुत करती है मानो वे कांग्रेस, गांधी और नेहरू से अलग कोई विचारधारा रखते थे। जबकि सच्चाई इसके ठीक उलट है।
- सरदार पटेल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता थे
- वे स्वतंत्र भारत के उप–प्रधानमंत्री और गृहमंत्री थे
- उन्होंने कांग्रेस संगठन को मज़बूत किया
- वे संविधान सभा के सदस्य थे और संविधान निर्माण की कई समितियों में शामिल थे
सबसे महत्वपूर्ण बात—सरदार पटेल एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत में विश्वास रखते थे, जबकि RSS का वैचारिक आधार हिंदू राष्ट्र और मनुस्मृति पर टिका हुआ है। ये दोनों विचारधाराएँ एक-दूसरे के विपरीत हैं।
नेहरू और पटेल: मतभेद नहीं, परस्पर पूरकता
RSS बार-बार यह दावा करती है कि नेहरू और पटेल के बीच गहरे मतभेद थे, खासकर कश्मीर के सवाल पर। लेकिन ऐतिहासिक दस्तावेज़ इस दावे को खारिज करते हैं।
- कश्मीर को लेकर कैबिनेट का सामूहिक निर्णय था
- संयुक्त राष्ट्र जाने का फैसला भी नेहरू और पटेल दोनों की सहमति से हुआ
- पटेल स्वयं कहते हैं कि भारत कश्मीर में इसलिए है क्योंकि कश्मीरी जनता भारत के साथ रहना चाहती थी
जब नेहरू ने पटेल से पूछा कि लोगों में उनके मतभेदों की चर्चा क्यों है, तो पटेल ने पत्र लिखकर साफ़ कहा कि
“हम दोनों ने साथ-साथ आज़ादी के आंदोलन में काम किया है, गांधी के मार्गदर्शन में। हमारी प्रतिबद्धता और मित्रता पर संदेह करने वालों के इरादे ठीक नहीं हैं।”
RSS पर सरदार पटेल का रुख़
गांधी हत्या के बाद सरदार पटेल ने RSS पर प्रतिबंध लगाया। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि देश में फैली नफ़रत और ज़हर के लिए RSS और हिंदू महासभा ज़िम्मेदार हैं।
यह तथ्य अपने-आप में RSS के सरदार पटेल प्रेम की पोल खोल देता है।
प्रधानमंत्री पद का सवाल: एक झूठी बहस
एक और प्रचार यह किया जाता है कि गांधी ने “गलती” की और नेहरू को प्रधानमंत्री बनाया।
हकीकत यह है:
- 1946 की अंतरिम सरकार में कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आज़ाद थे
- गांधी ने नेहरू को नेतृत्व के लिए उपयुक्त माना, खासकर विदेश नीति और सत्ता हस्तांतरण के संदर्भ में
- 1952 के पहले आम चुनाव से पहले ही सरदार पटेल का निधन (1950) हो चुका था
इसलिए “पटेल बनाम नेहरू” की बहस ऐतिहासिक रूप से निराधार है।
अंतिम संस्कार का झूठ और दस्तावेज़ी सच्चाई
RSS ने यह झूठ भी फैलाया कि नेहरू सरदार पटेल के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हुए।
- टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट
- विंसेंट शीन जैसे विदेशी पत्रकारों के विवरण
- मोरारजी देसाई की आत्मकथा
- और अंतिम संस्कार की तस्वीरें
सभी यह साबित करते हैं कि नेहरू अंतिम संस्कार में मौजूद थे और उन्होंने पटेल को श्रद्धांजलि दी।
निष्कर्ष: नेहरू और पटेल कोई बाइनरी नहीं थे
नेहरू और पटेल एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक थे।
- नेहरू की अंतरराष्ट्रीय समझ और लोकतांत्रिक दृष्टि
- पटेल की संगठनात्मक क्षमता और प्रशासनिक दृढ़ता
इन दोनों के बिना आधुनिक भारत की कल्पना अधूरी है।
RSS जिस “पटेल” को दिखाना चाहती है, वह वास्तविक सरदार पटेल नहीं, बल्कि एक राजनीतिक रूप से गढ़ा गया प्रतीक है।
