संवैधानिक मूल्यों को बचाने का संघर्ष पहले के किसी भी वक़्त की तुलना में सबसे ज़रूरी
6 दिसंबर को था – बाबासाहेब आंबेडकर का परिनिर्वाण दिवस।
डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को हुआ और उनका परिनिर्वाण 6 दिसंबर 1956 को हुआ। इस अवसर पर, हम उनके विचारों और आज की भारतीय सामाजिक-राजनीतिक परिस्थिति के बीच के संबंध पर बात करना चाहते हैं।
आज भी जाति का संकट
हम आधुनिक लोकतंत्र का दावा करते हैं, लेकिन जाति आज भी हमारे समाज की सबसे कठोर हक़ीक़त है। हाल ही में महाराष्ट्र में एक युवती के प्रेमी की सिर्फ़ इसलिए हत्या कर दी गई क्योंकि वह अनुसूचित जाति से था। यह घटना साबित करती है कि जातिवाद केवल अतीत की समस्या नहीं है — वह आज भी घातक रूप में मौजूद है।
जाति की जड़ें और धर्म पर आंबेडकर की दृष्टि
बाबासाहेब मानते थे कि जाति की जड़ें हिंदू धर्म की सामाजिक व्यवस्था में गहरी बसी हुई हैं।
इस व्यवस्था में ऊँच-नीच, छुआछूत और असमानता को धार्मिक मान्यता मिली हुई है। इसलिए उन्होंने स्पष्ट कहा था कि —
“मैं ऐसे धर्म को धर्म नहीं मानता जो जाति के आधार पर लोगों का शोषण करता हो।”
इसी विचार के कारण उन्होंने जाति उन्मूलन पर ज़ोर दिया और अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘Annihilation of Caste’ लिखी।
उनका उद्देश्य स्पष्ट था — धर्म, समाज और राजनीति सब में इंसान के सम्मान, बराबरी और स्वतंत्रता को स्थापित करना।
हिंदू धर्म का त्याग – बौद्ध धर्म की स्वीकृति
आंबेडकर कहते थे –
“हिंदू धर्म में जन्म लेना मेरे बस में नहीं था, लेकिन मैं हिंदू होकर मरूंगा नहीं।”
उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार किया क्योंकि बौद्ध दर्शन का केंद्र है —
समता, दया, तर्क और मानवता।
आज जबकि भारत में धार्मिक पहचान की राजनीति तेज़ है, बाबासाहेब का यह निर्णय और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। यह एक वैचारिक और नैतिक विद्रोह था — मनुवादी ढांचे के खिलाफ़।
हिंदुत्व, लोकतंत्र और आंबेडकर की चेतावनी
आंबेडकर ने बहुत पहले चेताया था कि यदि हिंदू राज स्थापित होता है, तो यह देश के लिए भयानक होगा।
अपनी पुस्तक ‘Pakistan and Partition of India’ में उन्होंने लिखा —
“अगर हिंदू राज सचमुच वास्तविकता बन जाता है तो इसमें संदेह नहीं कि यह देश के लिए भयानक विपत्ति होगी। हिंदुत्व, स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के लिए खतरा है। इसे हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।”
आज जब हिंदू राष्ट्र की कल्पना खुलेआम की जा रही है, यह चेतावनी और भी प्रासंगिक हो जाती है।
धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिक राजनीति
भारत एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश है।
यहाँ मंदिर भी होने चाहिए, मस्जिद भी, गुरुद्वारे भी, चर्च भी और विहार भी — यही हमारे संविधान और हमारे लोकतंत्र की आत्मा है।
लेकिन वर्तमान समय में, सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने की कोशिशें दिखाई देती हैं।
6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिराई गई। संयोग नहीं — यह तारीख़ सोची-समझी थी।
उद्देश्य था —
सांप्रदायिक उन्माद को बढ़ाना और आंबेडकर की विरासत को धुंधला करना।
लेकिन बाबासाहेब के विचारों पर धूल फेंकने से सूरज छिप नहीं जाता।
आज की राजनीति और लोकतंत्र का संकट
आज की राजनीति में लोकतांत्रिक मूल्य, संवैधानिक नैतिकता और मानवता कमज़ोर पड़ती दिखती है।
मनुवादी सोच, बहुसंख्यक राष्ट्रवाद और धर्म की राजनीति हमारे सामाजिक ताने-बाने और लोकतंत्र के लिए खतरनाक है।
बाबासाहेब का सपना था —
एक समतामूलक, न्यायपूर्ण, मानवतावादी भारत।
मुकुल सरल की पंक्तियाँ — नए भारत की त्रासदी
मुकुल सरल की ग़ज़ल की कुछ पंक्तियाँ आज के हालात को सटीक रूप में बयान करती हैं —
नया भारत बनाया जा रहा है, हमें हमसे डराया जा रहा है
उजाला जो दिखाया जा रहा है, हमारा घर जलाया जा रहा है
ये हिंदू है, ये मुसलमान, सिक्ख, ईसाई
यूँ क्यों फिर से बताया जा रहा है
हमें दुश्मन बनाकर, अपना यारों
हमें हमसे लड़ाया जा रहा है
इन पंक्तियों में हमारे समय की बेचैनी, धोखा और अंधेरा मौजूद है।
समापन – बाबासाहेब के सपनों का भारत
आंबेडकर का सपना सिर्फ़ एक जातिनिरपेक्ष समाज नहीं था —
वह एक नैतिक क्रांति चाहते थे, जहाँ —
- समानता हो
- न्याय हो
- मानवता हो
- वंचितों की आवाज़ सुनी जाए
- धर्म राजनीति का हथियार न बने
आज 6 दिसंबर को, बाबासाहेब को स्मरण करने का अर्थ केवल श्रद्धांजलि नहीं है।
सवाल यह है —
हम उनके सपनों के भारत के लिए क्या कर रहे हैं?
सोचिएगा!
