एनडीए के भीतर भी खलबली, क्या मोदी जी के लिए बिहार ‘नाको चने चबाने’ वाली ज़मीन बनी रहेगी?
बिहार – राजनीति की कठिन परीक्षा
नेहा सिंह राठौर का गाना “बिहार में का बा” याद होगा। यही सवाल आज मोदी जी और एनडीए के सामने खड़ा है। बिहार वह राज्य है जिसने बड़े-बड़े नेताओं को चुनौती दी है। सत्ता में वर्षों से काबिज रहने वाले नरेंद्र मोदी के लिए भी यह ज़मीन आसान नहीं है।
गुजरात, उत्तर प्रदेश या अन्य राज्यों में बीजेपी मज़बूत पकड़ बना लेती है, लेकिन बिहार में बार-बार पलटूराम यानी नितीश कुमार की मदद के बिना मोदी जी सत्ता में टिक नहीं पाए। यही कारण है कि बिहार को बीजेपी और आरएसएस दोनों के लिए सबसे मुश्किल राज्य माना जा रहा है।
भावनात्मक कार्ड और सीता माता का नाम
बीजेपी ने इस बार मिथलांचल में सीता माता के मंदिर का सहारा लिया। गृह मंत्री अमित शाह तक को यहां भेजा गया, ताकि चुनावी समीकरण साधे जा सकें। लेकिन यह कार्ड ज़्यादा नहीं चला। राम मंदिर का कार्ड भी 2024 में यूपी में फ्लॉप हो चुका था। बिहार में भी ‘मा सीता’ या ‘मा का अपमान’ वाला भावनात्मक कार्ड उम्मीद के मुताबिक असरदार नहीं हुआ।
मोदी जी की सभाओं में फीका पड़ता जनसमर्थन
प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में बिहार में अपनी मां के अपमान का मुद्दा उठाया, लेकिन इससे भी चुनावी माहौल गरम नहीं हुआ। यहां तक कि बीजेपी द्वारा बुलाए गए बंद में मुश्किल से कुछ लोग ही उतरे। कई जगहों पर पत्रकारों को गालियां दी गईं, जिससे माहौल और बिगड़ा। यह साफ संकेत है कि बिहार में बीजेपी का भावनात्मक दांव अब कारगर नहीं हो रहा।
एनडीए के भीतर खलबली
दिल्ली में अमित शाह के नेतृत्व में जब एनडीए नेताओं की बैठक हुई, तो सबसे बड़ा मुद्दा राहुल गांधी की ‘वोट चोर गद्दी छोड़ो’ यात्रा थी। इस यात्रा ने बिहार में जबरदस्त ऊर्जा पैदा की और एनडीए खेमे में बेचैनी बढ़ा दी।
- चिराग पासवान: एनडीए में शामिल हैं, मंत्री भी हैं, लेकिन अपनी रैलियों में मोदी का नाम तक नहीं लेते। वे खुद को मुख्यमंत्री की रेस में बताने लगे हैं। यह बीजेपी के लिए बड़ा संकेत है।
- जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा: ये सहयोगी नेता भी चुनाव आयोग के फैसलों और बीजेपी की रणनीति पर सवाल उठा रहे हैं।
- प्रशांत किशोर (पीके): अपनी ‘जन सुराज पार्टी’ के जरिए दबंग जातियों और बीजेपी के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं।
राहुल गांधी की यात्रा और विपक्ष की लामबंदी
राहुल गांधी की बिहार यात्रा ने विपक्ष को नई ऊर्जा दी है। जिस तरह से लोग गली-गली, मोहल्लों में उनके नारों के साथ जुड़े, उसने बीजेपी की चिंता बढ़ा दी। एनडीए के सहयोगी तक मान रहे हैं कि राहुल की यात्रा से बिहार की राजनीति में बड़ा बदलाव आया है।
बिहार की राजनीतिक ज़मीन क्यों कठिन है?
- भाषाई और सांस्कृतिक विविधता – हर चार कोस पर बोली, खान-पान और पहनावा बदल जाता है।
- क्रांतिकारी परंपरा – जेपी आंदोलन से लेकर आज तक बिहार ने सत्ता को चुनौती दी है।
- आसान हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण नहीं – यहां के हिंदू अपनी ठसक और पहचान रखते हैं, बाहरी चश्मे से उन्हें एक रंग में रंगना आसान नहीं।
- साझा विपक्ष – आरजेडी, कांग्रेस, वाम दल और अन्य पार्टियां मिलकर ज़मीनी स्तर पर मजबूत उपस्थिति बनाए हुए हैं।
निष्कर्ष
बिहार बीजेपी और मोदी जी के लिए अब भी कठिन राज्य बना हुआ है। भावनात्मक कार्ड, धार्मिक राजनीति और आक्रामक बयानबाज़ी यहां बार-बार उलटी पड़ रही है। एनडीए के भीतर मतभेद और विपक्ष की एकजुटता इसे और पेचीदा बना रही है।
आगामी चुनावों में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या मोदी-एनडीए बिहार में अपनी पकड़ मजबूत कर पाएंगे या फिर ‘बिहार बा’ की राजनीति एक बार फिर दिल्ली की सत्ता समीकरण बदल देगी।