November 22, 2025 12:38 am
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धराली में 34 सेकेंड की तबाही: क्या यह सिर्फ ‘प्राकृतिक आपदा’ थी?

धराली, उत्तराखंड में आई फ्लैश फ्लड में दर्जनों होटलों का विनाश। क्या ये सिर्फ प्राकृतिक आपदा थी या बेलगाम विकास की सजा?

इस भीषण आपदा के लिए जिम्मेदार कौन? BJP सरकार सबक कब सीखेगी?

जब प्रकृति ने लिया हिसाब

6 अगस्त 2025 को उत्तराखंड के धराली गांव में जो कुछ घटा, वह केवल एक ‘आपदा’ नहीं थी, बल्कि एक बार फिर हिमालयी क्षेत्र में अंधाधुंध विकास, सरकारी लापरवाही और पर्यावरणीय चेतावनी को अनदेखा करने की कीमत थी। मात्र 34 सेकेंड में आई फ्लैश फ्लड ने हड़बड़ी में बनाए गए होटल, होमस्टे और जीवन को बहा दिया

क्या सिर्फ बादल फटा था?

राज्य सरकार, विशेष रूप से मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी, इसे प्राकृतिक आपदा कहकर पल्ला झाड़ते नजर आ रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह वाकई सिर्फ बादल फटने या ग्लेशियर टूटने से हुआ?

भूवैज्ञानिक एस.पी. सती जैसे विशेषज्ञ स्पष्ट तौर पर चेतावनी दे चुके थे कि उत्तरकाशी क्षेत्र विशेष रूप से धराली गांव, एक ‘आत्मिक बम’ की तरह है — जहां कभी भी आपदा घट सकती है। इस क्षेत्र में पिछले 10 वर्षों में यह तीसरी बड़ी घटना है।

बेलगाम विकास: असली जिम्मेदार

धराली और हरसिल जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में बेलगाम निर्माण — सड़कें, होटल, होमस्टे — इन सबने प्राकृतिक जलमार्गों को रोक दिया। जो पानी का रास्ता था, वहां दीवारें खड़ी कर दी गईं। जिस नदी ने अपना रास्ता छोड़ा था, वह फिर लौट आई और तबाही का कारण बनी।

गांव वालों के अनुसार, प्रभावित क्षेत्र में लगभग 25–30 होमस्टे और होटल थे। इस पूरी घटना में किसी को संभलने का मौका तक नहीं मिला।

‘विकास’ बनाम सुरक्षा

उत्तराखंड में ‘ऑल वेदर रोड’ और बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स को प्राथमिकता दी जा रही है। लेकिन क्या इससे स्थानीय लोग सुरक्षित हैं? कावड़ यात्रियों के खाने पर स्कैनर लगाने वाली सरकार ने यह जांचने की कोई परवाह नहीं की कि कहां पर खतरनाक निर्माण हो रहा है।

विशेषज्ञों की चेतावनी

प्रो. एस.पी. सती जैसे भूविज्ञानी बार-बार चेताते रहे हैं कि भागीरथी घाटी के 100 किलोमीटर क्षेत्र में करीब 4 दर्जन गांव ग्लेशियर के मलबे पर बसे हैं। यह क्षेत्र अति संवेदनशील है।

Times of India और Dainik Bhaskar जैसे अख़बारों ने साफ लिखा है कि यह आपदा अंधाधुंध और अनियोजित निर्माण का परिणाम है — न कि केवल जलवायु परिवर्तन का।

सरकार की दोहरी सोच

सरकार को जब मुस्लिम बस्ती दिखती है तो वह उसे ‘अतिक्रमण’ कहती है, लेकिन जब पहाड़ों पर होटल खड़े किए जाते हैं, पेड़ काटे जाते हैं, सुरंगें खोदी जाती हैं — तब चुप्पी साध ली जाती है।

धराली में 1978 में भी इसी प्रकार की आपदा आई थी। क्या हमने 2013 की केदारनाथ त्रासदी से कुछ सीखा?

निष्कर्ष: कब लेंगे हम सबक?

उत्तराखंड, खासकर हिमालयी क्षेत्र, अब केवल प्राकृतिक आपदाओं का शिकार नहीं है — यह मैन-मेड डिजास्टर जोन बन चुका है।

जब तक विकास की नीतियां बदलेंगी नहीं, जब तक हिमालय को मुनाफे का स्रोत मानना बंद नहीं होगा, जब तक सुप्रीम कोर्ट तक इन सवालों पर सुनवाई नहीं होगी — तब तक धराली जैसी त्रासदियां दोहराई जाती रहेंगी।

2025 में धराली, 2013 में केदारनाथ, और फिर…? अगला नंबर किसका?

भाषा सिंह

1971 में दिल्ली में जन्मी, शिक्षा लखनऊ में प्राप्त की। 1996 से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।
'अमर उजाला', 'नवभारत टाइम्स', 'आउटलुक', 'नई दुनिया', 'नेशनल हेराल्ड', 'न्यूज़क्लिक' जैसे
प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों

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