तिरुवनंतपुरम की जीत, BJP का जश्न और असली सियासी तस्वीर
केरल में हुए हालिया स्थानीय निकाय (लोकल बॉडी) चुनावों के नतीजों ने राज्य की राजनीति में एक बार फिर बहस छेड़ दी है। एक तरफ कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (UDF) को इन चुनावों में स्पष्ट बढ़त मिली है, वहीं सत्तारूढ़ लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (LDF) को नुकसान उठाना पड़ा है। लेकिन इन नतीजों के बीच भारतीय जनता पार्टी (BJP) का जश्न और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ट्वीट यह संकेत देने की कोशिश करता है मानो केरल की राजनीति में कोई ऐतिहासिक उलटफेर हो गया हो।
प्रधानमंत्री मोदी ने केरल की जनता को धन्यवाद देते हुए जिस तरह से BJP पर “अभूतपूर्व भरोसे” की बात कही, उससे ऐसा आभास दिया गया कि केरल अब भाजपा की ओर निर्णायक रूप से झुक गया है। इस पूरे उत्साह की केंद्रबिंदु बनी है केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम, जहां 45 वर्षों से वामपंथी दलों का वर्चस्व रहा था और इस बार पहली बार BJP अपने दम पर कॉरपोरेशन जीतने में सफल हुई है।
क्या केरल = तिरुवनंतपुरम?
सवाल यही है कि क्या तिरुवनंतपुरम में मिली जीत को पूरे केरल की राजनीतिक दिशा का संकेत माना जा सकता है? स्थानीय निकाय चुनावों के समग्र नतीजे इस दावे की पुष्टि नहीं करते। आंकड़े साफ बताते हैं कि ग्राम पंचायत स्तर पर BJP की मौजूदगी बेहद सीमित रही है। 941 ग्राम पंचायतों में से पार्टी को महज करीब 25 पंचायतों में ही जीत मिली।
इसके उलट, UDF को राज्यभर में अच्छी सफलता मिली है। यह जीत काफी हद तक anti-incumbency यानी सत्ता विरोधी माहौल का नतीजा मानी जा रही है। सत्तारूढ़ LDF को न सिर्फ सीटों का नुकसान हुआ है, बल्कि उसके वोट प्रतिशत में भी गिरावट दर्ज की गई है।
LDF की हार के कारण
वरिष्ठ पत्रकार नीधीश के अनुसार, LDF के खिलाफ नाराजगी के कई कारण रहे। केंद्र सरकार से अपेक्षित वित्तीय सहायता न मिलना, स्थानीय स्तर पर बुनियादी सुविधाओं में कमी, और सबरीमला मंदिर से जुड़े विवाद—खासकर सोना चोरी होने और उसमें कुछ LDF नेताओं के नाम आने की खबरों—ने सरकार के खिलाफ माहौल को मजबूत किया।
केरल की राजनीति में एक ऐतिहासिक पैटर्न रहा है कि हर पांच साल में सत्ता बदलती रही है। पिछली बार LDF ने लगातार दूसरी बार सरकार बनाकर इस परंपरा को तोड़ा था। ऐसे में इस बार anti-incumbency का असर ज्यादा तीखा दिखाई दिया, जिसका सीधा फायदा UDF को मिला।
BJP का बढ़ता ग्राफ, लेकिन सीमाएं भी
यह सच है कि भाजपा का ग्राफ केरल में धीरे-धीरे बढ़ रहा है। पार्टी हर चुनाव में पहले से ज्यादा सीटों पर लड़ रही है, ज्यादा सीटें जीत रही है और उसका वोट प्रतिशत भी बढ़ा है। तिरुवनंतपुरम में कॉरपोरेशन जीतना और इससे पहले पल्लकड और पंडलम जैसी नगरपालिकाओं में जीत इस बढ़त के संकेत हैं।
भाजपा ने केरल के कुछ हिंदू समुदायों—जैसे नायर, ब्राह्मण और नाडर—के बीच अपना आधार मजबूत किया है। पार्टी का मजबूत कैडर बेस, संगठित तंत्र और पर्याप्त वित्तीय संसाधन उसकी ताकत हैं।
लेकिन इसकी भी सीमाएं हैं। केरल की राजनीति में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की गुंजाइश कम रही है। भाजपा यहां वह सांप्रदायिक कार्ड नहीं खेल पाई है, जो वह देश के कई अन्य हिस्सों में खेलती आई है। यही वजह है कि केरल को त्रिपुरा की राह पर जाता हुआ मानना फिलहाल सही नहीं होगा।
तिरुवनंतपुरम का अलग चरित्र
तिरुवनंतपुरम का राजनीतिक और सामाजिक चरित्र राज्य के कई अन्य हिस्सों से अलग है। यह एक महानगरीय क्षेत्र है, जहां युवा मतदाता चेहरे, प्रोफाइल और प्रशासनिक क्षमता को ज्यादा महत्व देते हैं। यही कारण है कि शशि थरूर यहां से बार-बार जीतते रहे हैं।
LDF ने भी यहां प्रयोग करते हुए देश और संभवतः दुनिया का सबसे युवा मेयर चुना था। इस बार भाजपा की जीत को इसी शहरी और प्रोफाइल-आधारित राजनीति के संदर्भ में देखना चाहिए, न कि पूरे राज्य के रुझान के रूप में।
शशि थरूर और BJP की राजनीति
प्रधानमंत्री मोदी के ट्वीट और भाजपा के जश्न के साथ-साथ कांग्रेस नेता शशि थरूर के बयान भी चर्चा में रहे। उन्होंने कांग्रेस को बधाई दी, लेकिन साथ ही भाजपा की जीत की तारीफ में भी लंबा वक्तव्य दिया। इससे भाजपा के उस गेम प्लान की झलक मिलती है, जिसमें वह केरल में अपनी मौजूदगी को वास्तविक ताकत से कहीं ज्यादा बड़ा दिखाने की कोशिश कर रही है।
हालांकि, नीधीश के मुताबिक शशि थरूर की भाजपा से कथित नजदीकी का तिरुवनंतपुरम के नतीजों पर कोई खास नकारात्मक असर नहीं पड़ा। उलटे, कांग्रेस ने पिछली बार के मुकाबले यहां अपनी स्थिति बेहतर की है।
आगे की राह: 2026 का सेमीफाइनल
केरल में अगले साल मई में विधानसभा चुनाव होने हैं। इस लिहाज से स्थानीय निकाय चुनावों को सेमीफाइनल के तौर पर देखा जा रहा था। नतीजे साफ तौर पर UDF के पक्ष में संकेत देते हैं, जबकि LDF के लिए यह चेतावनी है।
भाजपा के लिए तिरुवनंतपुरम की जीत निश्चित रूप से एक प्रतीकात्मक सफलता है, लेकिन इसे पूरे केरल की ‘फतह’ बताना राजनीतिक प्रचार से ज्यादा कुछ नहीं है। केरल की जमीनी सियासत, वाम दलों का मजबूत आधार और सामाजिक ताना-बाना फिलहाल किसी बड़े भगवाकरण की कहानी को स्वीकार करने को तैयार नहीं दिखता।
निष्कर्षः केरल के लोकल बॉडी चुनावों का संदेश साफ है—राज्य की राजनीति अभी भी द्विध्रुवीय है, जहां UDF और LDF मुख्य धुरी बने हुए हैं। भाजपा की मौजूदगी बढ़ी है, लेकिन वह अभी उस मुकाम से काफी दूर है, जहां से वह केरल की राजनीति को निर्णायक रूप से बदल सके।
