December 25, 2025 1:36 am
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खुदा होने या न होने की इस बहस से किसको है फायदा!

ईश्वर के अस्तित्व पर जावेद अख्तर और मुफ्ती नदवी की बहस ने क्या हासिल किया? जानिए धर्म, राजनीति और सत्ता के रिश्ते का सच।

ईश्वर के अस्तित्व पर बहस: सवाल ईश्वर का नहीं, राजनीति और सत्ता का है

क्या ईश्वर या खुदा का अस्तित्व है—इस सवाल पर सोशल मीडिया में इन दिनों जबरदस्त शोर है। यह शोर अचानक नहीं उठा। इसकी शुरुआत मीडा चैनल लल्लन टॉप पर लाइव दिखाई गई उस बहस से हुई, जिसमें मशहूर शायर, गीतकार और घोषित नास्तिक जावेद अख्तर और इस्लामिक स्कॉलर मुफ्ती शमाईल नदवी आमने-सामने थे।

बहस के बाद सोशल मीडिया का फैसला भी तुरंत सुना दिया गया—“नास्तिक हार गए”, “ईश्वर जीत गया”।
लेकिन असली चिंता इस जीत-हार से नहीं, बल्कि तर्क की हत्या से है।

बहस किस वक्त हुई, यह सवाल ज्यादा जरूरी है

यह बहस ऐसे समय में हुई जब देश में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा, दमन और अपमान की एक लंबी श्रृंखला चल रही है।
बुलडोजर मुसलमानों के घरों पर चल रहे हैं।
सरेआम मुस्लिम महिलाओं के हिजाब खींचे जा रहे हैं।
नफरत सत्ता की नीति बन चुकी है और RSS के वैचारिक प्रभुत्व में हिंदू राष्ट्र का सपना खुलेआम परोसा जा रहा है।

ऐसे वक्त में ईश्वर के अस्तित्व पर बहस—किसके एजेंडे को मजबूत करती है?

क्या इस बहस ने सत्ता को चुनौती दी?

सीधा सवाल है:
क्या इस बहस ने मोदी सरकार या RSS के दौर में पनप रहे हिंदू राष्ट्र के खतरे को कहीं से भी चुनौती दी?

जवाब साफ है—नहीं।

यह सदियों पुरानी बहस है।
लेकिन क्या इसमें भगत सिंह की उस वैचारिक जमीन को आगे बढ़ाया गया, जहाँ उन्होंने “मैं नास्तिक क्यों हूँ” लिखते हुए धर्म, सत्ता और शोषण के रिश्ते पर चोट की थी?
क्या कार्ल मार्क्स की यह समझ सामने आई कि धर्म “अफीम” है, लेकिन साथ ही उत्पीड़ितों की आह भी है?
क्या स्टीफन हॉकिंग की तरह विज्ञान के आधार पर ईश्वर की अवधारणा को चुनौती देने वाली कोई वैज्ञानिक चेतना समाज में पैदा हुई?

इन सभी सवालों का जवाब फिर वही है—नहीं।

इस बहस से हासिल क्या हुआ?

इस बहस से जो हासिल हुआ, वह बेहद खतरनाक है।

पहला—
BJP और RSS वर्षों से जो प्रचार करते आए हैं कि “मुसलमान कट्टर होता है”, सोशल मीडिया ने उसी नैरेटिव को और मजबूत किया।

दूसरा—
देश को एक और “मुफ्ती” मिला, जो शरीयत के नाम पर मुसलमानों और खासकर महिलाओं को यह बताने लगा कि उन्हें कैसे जीना चाहिए, कैसे सोचना चाहिए।

तीसरा—
धर्म और ईश्वर की बहस को राजनीतिक दमन, सामाजिक अन्याय और राज्य हिंसा से काटकर पेश किया गया।

बहस जरूरी है, लेकिन सवाल यह है—किस पर?

कुछ तर्कवादी और नास्तिक कहते हैं कि बहस जरूरी है।
मैं भी मानती हूँ—बहस जरूरी है।
लेकिन बहस का मकसद क्या है, यह उससे ज्यादा जरूरी है।

आज जब गाज़ा में बच्चे मारे जा रहे हैं,
जब निर्दोष लोग मलबे में दबे हैं,
तो यह सवाल खुद-ब-खुद सामने आता है—
अगर ईश्वर है और वह यह सब देख रहा है,
अगर वह सत्ता के साथ खड़ा है,
तो ऐसे ईश्वर से इंसान का रिश्ता आखिर क्या होना चाहिए?

असली सवाल ईश्वर का नहीं, इंसाफ का है

ईश्वर के अस्तित्व की बहस तब तक खोखली है,
जब तक वह सत्ता, हिंसा, अन्याय और उत्पीड़न को चुनौती नहीं देती।

अगर बहस का नतीजा यह हो कि
—नफरत और मजबूत हो
—कट्टरता को खाद मिले
—और सत्ता बेदाग बच निकले

तो ऐसी बहस न ज्ञान देती है, न मुक्ति।

भाषा सिंह

1971 में दिल्ली में जन्मी, शिक्षा लखनऊ में प्राप्त की। 1996 से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।
'अमर उजाला', 'नवभारत टाइम्स', 'आउटलुक', 'नई दुनिया', 'नेशनल हेराल्ड', 'न्यूज़क्लिक' जैसे
प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों

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