December 15, 2025 10:15 am
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ऐतिहासिक ग़लतबयानी और राष्ट्रवाद का सच

राजनाथ सिंह और नरेंद्र मोदी के बयानों के बहाने RSS-BJP की ऐतिहासिक ग़लतबयानी, बाबरी मस्जिद, सोमनाथ मंदिर और वंदे मातरम् का सच।

BJP-RSS को न वंदे मातरम का इतिहास पता है न ही बाबरी मस्जिद का!

आज देश की राजनीति में बार-बार इतिहास को लेकर ऐसे बयान सामने आते हैं, जिनका उद्देश्य तथ्य प्रस्तुत करना नहीं बल्कि एक खास वैचारिक एजेंडे को मजबूत करना होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और भारतीय जनता पार्टी (BJP) के कई शीर्ष नेता इतिहास से जुड़ी ऐसी बातें कहते रहे हैं, जो न तो तथ्यों पर आधारित हैं और न ही ऐतिहासिक दस्तावेज़ों से उनका कोई संबंध है। इस लेख में हम दो प्रमुख उदाहरणों के ज़रिये RSS–BJP की इसी कार्यशैली को समझने की कोशिश करेंगे।

राजनाथ सिंह का बयान और बाबरी मस्जिद का झूठा संदर्भ

हाल ही में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने गुजरात में दिए एक भाषण में दावा किया कि जवाहरलाल नेहरू बाबरी मस्जिद के पुनर्निर्माण के लिए 30 लाख रुपये खर्च करना चाहते थे, लेकिन सरदार वल्लभभाई पटेल ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। यह दावा पहली नज़र में ही ऐतिहासिक रूप से निराधार और बेतुका साबित होता है।

सरदार वल्लभभाई पटेल का निधन 1950 में हो गया था, जबकि बाबरी मस्जिद को लेकर विवाद का उभार 1990 के बाद हुआ। बाबरी मस्जिद को 6 दिसंबर 1992 को गिराया गया। उससे पहले न तो इसके पुनर्निर्माण का कोई सरकारी प्रस्ताव था और न ही 1950 के दशक में इस मुद्दे का कोई ऐसा स्वरूप था, जैसा आज प्रस्तुत किया जाता है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि राजनाथ सिंह किस इतिहास की बात कर रहे हैं?

असल में इस तरह के बयान इतिहास को तोड़-मरोड़ कर संघ की वैचारिक राजनीति को सही ठहराने की कोशिश हैं। यह रणनीति पुरानी है—ऐसे किस्से गढ़ना जिनका कोई दस्तावेज़ी आधार न हो, लेकिन जो भावनात्मक रूप से लोगों को प्रभावित कर सकें।

सोमनाथ मंदिर, गांधी और नेहरू का दृष्टिकोण

आजादी के बाद कई लोगों ने महात्मा गांधी से यह मांग की थी कि विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा तोड़े गए मंदिरों का पुनर्निर्माण सरकार करे। विशेष रूप से सोमनाथ मंदिर का सवाल उठाया गया। इस पर गांधी ने स्पष्ट कहा था कि मंदिर या मस्जिद बनाना सरकार का काम नहीं है। सरकार का पैसा जनता के टैक्स से आता है और उसका इस्तेमाल रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसी बुनियादी ज़रूरतों के लिए होना चाहिए।

इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए जवाहरलाल नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के निर्माण में सरकारी हस्तक्षेप का विरोध किया। बाद में सरदार पटेल की अध्यक्षता में एक ट्रस्ट बना, जिसमें कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जैसे लोग शामिल थे। इस ट्रस्ट ने जनता से चंदा इकट्ठा कर सोमनाथ मंदिर का निर्माण कराया।

जब तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को उद्घाटन के लिए बुलाया गया, तब नेहरू ने उन्हें लिखा कि राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद पर रहते हुए किसी धार्मिक आयोजन का सरकारी रूप में उद्घाटन करना उचित नहीं होगा। डॉ. राजेंद्र प्रसाद निजी हैसियत से, बिना किसी तामझाम के, सोमनाथ गए और मंदिर का उद्घाटन किया। यह पूरी घटना स्पष्ट करती है कि नेहरू और गांधी का दृष्टिकोण धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा पर आधारित था।

वंदे मातरम् और विभाजन की राजनीति

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कई बार यह दावा किया है कि ‘वंदे मातरम् के टुकड़े किए गए’ और कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के सामने समर्पण किया, जिसके कारण देश का विभाजन हुआ। यह दावा भी ऐतिहासिक तथ्यों से परे है।

‘वंदे मातरम्’ गीत बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने लिखा था और यह उनके उपन्यास ‘आनंदमठ’ का हिस्सा बना। इस गीत के पहले दो पद मातृभूमि की वंदना करते हैं, जबकि बाद के पदों में हिंदू देवी-देवताओं की आराधना है। यही कारण था कि इसे लेकर कुछ समुदायों को आपत्ति थी।

1896 में कांग्रेस अधिवेशन में रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘वंदे मातरम्’ गाया। आज़ादी के आंदोलन में यह गीत ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक बन गया। उर्दू सहित कई भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ और देशभर में इसे गाया गया।

जवाहरलाल नेहरू ने इस मुद्दे पर संतुलित रुख अपनाया। उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर से सलाह ली। टैगोर ने सुझाव दिया कि ‘वंदे मातरम्’ के पहले दो पद, जो किसी एक धर्म से जुड़े नहीं हैं, स्वीकार किए जाने चाहिए। इसी सलाह के आधार पर संविधान सभा में निर्णय लिया गया कि ‘वंदे मातरम्’ के पहले दो पदों को राष्ट्रगीत का दर्जा मिलेगा, जबकि ‘जन गण मन’ को राष्ट्रगान बनाया जाएगा।

संविधान सभा और राष्ट्रगान का निर्णय

संविधान सभा की नेशनल एंथम कमेटी में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, सरदार पटेल और डॉ. भीमराव अंबेडकर जैसे नेता शामिल थे। इस समिति ने ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’, ‘जन गण मन’ और ‘वंदे मातरम्’ पर विचार किया।

‘सारे जहां से अच्छा’ लोकप्रिय गीत था, लेकिन इसके रचयिता मोहम्मद इक़बाल के बाद में पाकिस्तान समर्थक रुख के कारण इसे नहीं चुना गया। अंततः ‘जन गण मन’ को राष्ट्रगान और ‘वंदे मातरम्’ को राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया गया। इस फैसले का विभाजन से कोई सीधा संबंध नहीं था।

विभाजन की असली पृष्ठभूमि

भारत के विभाजन का मुख्य कारण अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति थी। हिंदू महासभा, मुस्लिम लीग और RSS—तीनों को ब्रिटिश सत्ता ने अलग-अलग तरीकों से समर्थन दिया। जहां राष्ट्रीय आंदोलन एक साझा, समावेशी भारत की बात कर रहा था, वहीं हिंदू महासभा और RSS हिंदू राष्ट्र की अवधारणा पर जोर दे रहे थे और मुस्लिम लीग मुस्लिम राष्ट्र की।

1923 में विनायक दामोदर सावरकर ने पहली बार लिखित रूप में ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ की बात की—एक हिंदू राष्ट्र और एक मुस्लिम राष्ट्र। 1937 में हिंदू महासभा के अधिवेशन में सावरकर ने जिन्ना के इस विचार से सहमति जताई। इसके बाद 1940 में जिन्ना ने पाकिस्तान की मांग औपचारिक रूप से रखी।

यह भी महत्वपूर्ण है कि उस समय मुस्लिम लीग पूरे मुस्लिम समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी। 1947 से पहले सिंध के पूर्व प्रधानमंत्री अल्लाह बख्श के नेतृत्व में आज़ाद मुस्लिम कॉन्फ्रेंस हुई, जिसमें करीब 50,000 मुसलमानों ने पाकिस्तान की मांग का विरोध किया।

इतिहास से खिलवाड़ क्यों?

आज RSS–BJP के नेता इतिहास को तोड़-मरोड़ कर इसलिए पेश करते हैं ताकि आज की राजनीति को वैध ठहराया जा सके। जिन लोगों और संगठनों ने आज़ादी के आंदोलन में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई, वे आज उसी आंदोलन के प्रतीकों—जैसे ‘वंदे मातरम्’—का इस्तेमाल राजनीतिक हथियार के रूप में कर रहे हैं।

अगर देश के रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री जैसे पदों पर बैठे लोग इस तरह के तथ्यहीन बयान देते हैं, तो यह सिर्फ इतिहास का अपमान नहीं है, बल्कि जनता की समझ का भी। इतिहास को समझना और उसे ईमानदारी से पेश करना किसी भी लोकतंत्र की बुनियादी ज़रूरत है।

राम पुनियानी

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