रामभद्राचार्य के बयान का ज़हरीला अर्थ और मनुवादी राजनीति का असली चेहरा
धर्मगुरु रामभद्राचार्य का हालिया बयान, जिसमें उन्होंने wife यानी पत्नी को “Wonderful Instrument for Entertainment” बताया, सिर्फ एक विवादित टिप्पणी नहीं है—यह उस सोच का सार्वजनिक प्रदर्शन है जो भारत की आधी आबादी यानी महिलाओं को एक “उपकरण”, “मनोरंजन की वस्तु” और “खिलौना” की तरह देखती है।
वीडियो में वह अंग्रेज़ी शब्द WIFE के हर अक्षर का मनगढ़ंत अर्थ निकालकर खुलेआम यह बताता है कि पत्नी का मतलब है—
“Wonderful Instrument For Enjoyment”
यानि, “आनंद और मनोरंजन का अद्भुत उपकरण”।
और इस बयान पर मौजूद श्रोताओं की हंसी बताती है कि भारत के बड़े हिस्से में मनुवादी सोच कितनी गहराई से धंसी हुई है।
पत्नी नहीं, ‘उपकरण’ — यह कौन-सी संस्कृति है?
रामभद्राचार्य कहते हैं कि भारतीय संस्कृति में पत्नी वह है जो पति के “यज्ञ” में उसका साथ दे। यानी स्त्री का अस्तित्व पूरी तरह पुरुष के लिए, पुरुष के यज्ञ, पुरुष के धर्म, पुरुष की इच्छा और पुरुष के मनोरंजन के लिए।
यह मनुस्मृति की वही परिभाषा है, जिसमें स्त्री को स्वतंत्र अस्तित्व नहीं दिया गया।
यह संयोग नहीं है कि जिन्हें ज्ञानपीठ जैसी प्रतिष्ठित उपाधि दी गई है, वे स्त्री को एक “खिलौना” बताने में कोई शर्म महसूस नहीं करते। यह बताता है कि किस तरह संस्थाएँ भी कई बार मनुवादी ढांचे को ही वैधता देती हैं।
रामराज्य का सपना या मनुस्मृति का पुनरुद्धार?
रामभद्राचार्य सिर्फ महिलाओं के अपमान पर नहीं रुकते।
वह खुलेआम कहते हैं कि—
“अब जब रामराज आ गया है, तो दलितों और आदिवासियों को आरक्षण की जरूरत नहीं है। उन्हें मिली सभी विशेष सुरक्षा खत्म कर देनी चाहिए।”
यह बयान किसी धार्मिक व्याख्या का हिस्सा नहीं है।
यह एक राजनीतिक प्रोजेक्ट है—
भारत को संवैधानिक लोकतंत्र से निकालकर मनुस्मृति के नियमों की ओर धकेलने का प्रोजेक्ट।
जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अयोध्या जाकर कहते हैं कि रामराज्य आ गया है, तो ऐसे बयानों को राजनीतिक संरक्षण मिलना स्वाभाविक हो जाता है। रामभद्राचार्य जैसे लोग फिर निर्भीक होकर वही बोलते हैं, जो मनुवाद चाहता है—
- महिलाओं की सामाजिक हैसियत कम करो
- दलित-आदिवासियों के अधिकार खत्म करो
- संविधान की जगह वेदों और मनुस्मृति की व्याख्या लागू करो
क्या आधी आबादी इस परिभाषा को स्वीकार करेगी?
भारत की 140 करोड़ आबादी में लगभग 70 करोड़ महिलाएँ हैं।
क्या वे अपनी पहचान को इस “मनोरंजन उपकरण” वाली परिभाषा में सीमित होने देंगी?
क्या वे सहमत होंगी कि उनका अस्तित्व सिर्फ पुरुष को खुश रखने, उसका मनोरंजन करने और उसके “यज्ञ” में साथ देने तक सीमित है?
आज महिलाएँ न्यायपालिका, नौकरशाही, विज्ञान, खेल, अंतरीक्ष, पत्रकारिता और राजनीति—हर क्षेत्र में संघर्ष करके खड़ी हैं। ऐसे में यह बयान एक तरह से महिलाओं की उपलब्धियों को मिटाने और उन्हें फिर से गुलामी की स्थिति में वापस ले जाने का प्रयास है।
मनुवादी सोच का राजनीतिक उपयोग
सबका साथ–सबका विकास, बेटी बचाओ–बेटी पढ़ाओ जैसे नारे लाने वाली सरकार में ही यह बयान देने वाले लोग सुरक्षित महसूस करते हैं।
वे जानते हैं कि उन्हें कोई खतरा नहीं।
क्योंकि इस दौर में
रामराज नहीं, मोदीराज है—और मनुवादी भाषणों पर कभी कोई कार्रवाई नहीं होती।
यही कारण है कि ऐसे बयान सिर्फ बयान नहीं होते, बल्कि राजनीतिक संकेत होते हैं।
संदेश साफ है—
- महिलाओं को दोयम दर्जे पर रखो
- दलितों-आदिवासियों के अधिकार कमजोर करो
- समाज को पुरानी वर्ण व्यवस्था की ओर मोड़ो
और यह सब “धर्म” और “राम” के नाम पर वैध ठहराने की कोशिश की जाती है।
यह पहली बार नहीं…
रामभद्राचार्य ऐसे जहरीले बयान पहले भी कई बार दे चुके हैं—
- महिलाओं के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणियाँ
- दलितों के अधिकारों का विरोध
- संविधान को कमज़ोर करने वाले वक्तव्य
लेकिन हर बार उन्हें वही सम्मान, वही मंच, और वही संरक्षण मिलता है।
यही सबसे बड़ा खतरा है।
निष्कर्ष: यह लड़ाई बयान की नहीं, भविष्य की है
ये बयान सिर्फ विवाद पैदा करने के लिए नहीं होते।
ये उन नीतियों और राजनीतिक फैसलों की ज़मीन तैयार करते हैं, जो धीरे-धीरे संविधान की रोशनी बुझाकर मनुस्मृति का अंधेरा फैलाती हैं।
भारत की आधी आबादी—महिलाएं—और वह समुदाय जो सदियों से उत्पीड़न झेलता आया है—दलित और आदिवासी—
दोनों को समझने की जरूरत है कि यह सिर्फ एक धर्मगुरु की “व्यक्तिगत राय” नहीं है।
यह उस राजनीतिक और सांस्कृतिक परियोजना का हिस्सा है जो बराबरी के भारत को असमानता के भारत में बदलना चाहती है।
