राजस्थान में विश्वविद्यालयों पर RSS-ABVP का दबावअब यह सवाल सिर्फ किताबों या सिलेबस तक सीमित नहीं रह गया है कि विश्वविद्यालयों में क्या पढ़ाया जाएगा। सवाल यह है कि कौन पढ़ाएगा, कौन प्रोफेसर बनेगा और कौन कुलपति होगा। राजस्थान से आ रही खबरें बताती हैं कि यह फैसला अब न तो अकादमिक संस्थाएं कर रही हैं और न ही विश्वविद्यालयों की स्वायत्त व्यवस्थाएं। यह काम खुलकर RSS, BJP और उनके छात्र संगठन ABVP के हाथों में सौंप दिया गया है।
एक साल में पांच कुलपति बाहर
राजस्थान में पिछले एक साल के भीतर पांच कुलपतियों की छुट्टी कर दी गई। चार कुलपतियों को सीधे राज्यपाल द्वारा हटाया गया, जबकि एक कुलपति ने लगातार दबाव और विरोध के चलते इस्तीफा दे दिया। यह कोई सामान्य प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि एक सुनियोजित राजनीतिक हस्तक्षेप की तस्वीर है।
छात्र संगठनों और शिक्षाविदों का कहना है कि ABVP के दबाव में फैसले लिए जा रहे हैं। शिकायत चाहे कितनी ही छोटी क्यों न हो, कार्रवाई सीधे कुलपति तक पहुंच रही है। यह संदेश साफ है—अगर आप सत्ता के वैचारिक खांचे में फिट नहीं बैठते, तो आपकी कुर्सी सुरक्षित नहीं है।
रिटायरमेंट के दिन निलंबन
इस पूरे घटनाक्रम में सबसे चौंकाने वाला मामला हरी भाव का है, जिन्हें रिटायरमेंट के दिन ही निलंबित कर दिया गया। यह न केवल प्रशासनिक असंवेदनशीलता है, बल्कि एक तरह से चेतावनी भी—कि सेवा समाप्ति भी आपको सत्ता की नाराज़गी से नहीं बचा सकती।
हरी भाव ने इस फैसले को चुनौती देते हुए हाई कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है, जिससे यह मामला अब केवल शिक्षा का नहीं, बल्कि संवैधानिक अधिकारों का भी बन गया है।
कृषि विश्वविद्यालय भी निशाने पर
हस्तक्षेप केवल सामान्य विश्वविद्यालयों तक सीमित नहीं है। स्वामी केशवानंद राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय, बीकानेर के कुलपति डॉ. अरुण कुमार को अगस्त में निलंबित कर दिया गया। इसी तरह कृषि विश्वविद्यालय, जोधपुर के कार्यवाहक कुलपति को भी हटाया गया।
यानि साफ है कि चाहे कला हो, विज्ञान हो या कृषि शिक्षा—हर जगह नियंत्रण की कोशिश की जा रही है।
किताबों से कुर्सियों तक कब्ज़ा
शिक्षाविदों का कहना है कि यह प्रक्रिया केवल कुलपति बदलने तक सीमित नहीं है। पाठ्यक्रमों में बदलाव, किताबों का चयन, नियुक्तियां और प्रमोशन—हर स्तर पर वैचारिक हस्तक्षेप हो रहा है।
मोदी सरकार के दौर में यह काम खुले तौर पर RSS और ABVP को सौंप दिया गया है। पहले जहां शिक्षा संस्थानों को सत्ता से एक हद तक स्वतंत्र माना जाता था, अब वे राजनीतिक प्रयोगशालाओं में बदलते जा रहे हैं।
शिक्षा व्यवस्था पर गंभीर खतरा
कई वरिष्ठ शिक्षाविद इस स्थिति को लेकर गहरी चिंता जता रहे हैं। उनका कहना है कि केंद्र सरकार का इस तरह का सीधा हस्तक्षेप पूरी शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद कर देगा। विश्वविद्यालयों का काम सवाल पूछना, शोध करना और नई सोच विकसित करना होता है—लेकिन जब हर फैसले पर वैचारिक पहरा होगा, तो अकादमिक स्वतंत्रता कैसे बचेगी?
राजस्थान इस समय एक उदाहरण बनता जा रहा है—एक ऐसा उदाहरण, जहां दिखाया जा रहा है कि अगर सत्ता चाहे, तो विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को कितनी आसानी से कुचला जा सकता है।
सवाल जो बाकी हैं
सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या विश्वविद्यालयों को RSS-BJP की विचारधारा का विस्तार केंद्र बना दिया जाएगा? क्या शिक्षा का मतलब अब सिर्फ वही पढ़ाना रह गया है जो सत्ता को सुविधाजनक लगे? और अगर आज राजस्थान है, तो कल कौन सा राज्य?
यह सिर्फ राजस्थान के विश्वविद्यालयों की कहानी नहीं है। यह उस भारत की तस्वीर है, जहां शिक्षा, असहमति और स्वायत्तता—तीनों को एक-एक कर निशाने पर लिया जा रहा है।
