2025 में दलित महिलाओं की स्थिति: हिंसा, श्रम और ‘विकास’ के खोखले दावे
भारत में 2025 तक पहुँचते-पहुंचते ‘विकास’ का शोर पहले से कहीं ज़्यादा तेज़ है। सरकारें उपलब्धियों के दावे कर रही हैं, लेकिन ज़मीन पर दलित महिलाओं की ज़िंदगी इस शोर से कितनी बदली है—यह सवाल अब भी अनुत्तरित है। अखिल भारतीय दलित महिला अधिकार मंच की हालिया रिपोर्ट इसी सवाल को केंद्र में रखती है। इस रिपोर्ट पर बेबाक भाषा ने मंच की जनरल सेक्रेटरी और दलित अधिकार कार्यकर्ता अभीरामी से विस्तृत बातचीत की।
यह रिपोर्ट सिर्फ हिंसा की घटनाओं का लेखा-जोखा नहीं है, बल्कि यह दिखाती है कि कैसे जाति, जेंडर, गरीबी और श्रम एक-दूसरे से जुड़कर दलित महिलाओं के जीवन को लगातार असुरक्षित बनाते हैं।
चार राज्यों का सर्वे: हर दिशा से एक ही सच्चाई
रिपोर्ट के लिए बिहार, हरियाणा, महाराष्ट्र और तेलंगाना—चारों दिशाओं से प्राथमिक डेटा इकट्ठा किया गया। यह अध्ययन संयुक्त राष्ट्र के SDG-5 (महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ सभी तरह की हिंसा और भेदभाव की समाप्ति) को केंद्र में रखकर किया गया।
अभीरामी के मुताबिक,
“हमने सिर्फ हिंसा नहीं देखी, बल्कि यह समझने की कोशिश की कि दलित महिला की ज़िंदगी में जाति और जेंडर किस तरह हर स्तर पर असर डालते हैं—चाहे वह यौन हिंसा हो, प्रजनन स्वास्थ्य हो या आजीविका।”
गन्ना मज़दूर दलित महिलाएं: जब मेहनत गर्भाशय छीन ले
रिपोर्ट का सबसे भयावह हिस्सा महाराष्ट्र के बीड ज़िले में गन्ना काटने वाली दलित महिलाओं से जुड़ा है। यहाँ काम की अमानवीय शर्तों ने महिलाओं को इस हद तक धकेल दिया है कि 35–40 प्रतिशत मामलों में उनका गर्भाशय (यूट्रस) निकलवा दिया जाता है।
ऐसा क्यों हो रहा है?
- गन्ना मज़दूरी में जोड़ेदार (जोड़ी सिस्टम) काम होता है
- परिवार पूरे-के-पूरे माइग्रेशन पर जाते हैं
- बच्चों को भी साथ ले जाया जाता है, जिससे स्कूल ड्रॉप-आउट बढ़ता है
- 13–14 साल की उम्र में लड़कियों की जल्दी शादी कर दी जाती है, ताकि वे भी कमाई का हिस्सा बन सकें
- रोज़ाना 30 किलो तक गन्ना उठाना, पानी-स्वच्छता की कमी और छुट्टी लेने पर पेनल्टी
इन हालात में लगातार ब्लीडिंग और स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रही महिलाओं को ठेकेदार और निजी डॉक्टर यूट्रस निकलवाने को “समाधान” बताने लगते हैं। इसका असर सिर्फ शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक, यौन और प्रजनन स्वास्थ्य पर भी विनाशकारी है।
देवदासी और जोगिनी प्रथा: खत्म नहीं हुई, बस छिप गई
तेलंगाना में जोगिनी (देवदासी) प्रथा पर किया गया अध्ययन यह बताता है कि जिसे समाज “खत्म” मान चुका था, वह आज भी ज़िंदा है—बस ज़्यादा गुप्त रूप में।
- कम उम्र की दलित बच्चियों को मंदिरों को समर्पित किया जाता है
- शादी नहीं होती, लेकिन यौन शोषण जारी रहता है
- 50–55 साल की उम्र की महिलाएं भी आज तक डोमिनेंट कास्ट पुरुषों के यौन शोषण का शिकार हैं
- सरकारी पेंशन (2000–3000 रुपये) इतनी कम है कि आजीविका के लिए वही शोषण झेलना पड़ता है
रिपोर्ट साफ कहती है कि यह सिर्फ परंपरा नहीं, बल्कि जाति-आधारित जबरन सेक्स वर्क है।
हरियाणा: नाबालिग दलित लड़कियां और ‘झूठे रिश्ते’
हरियाणा में अध्ययन के दौरान सबसे ज़्यादा मामले नाबालिग दलित लड़कियों के खिलाफ यौन हिंसा के सामने आए।
- डोमिनेंट कास्ट पुरुष शादी का झांसा देकर संबंध बनाते हैं
- बाद में छोड़ देते हैं
- जब केस दर्ज होता है, तब भी न्याय मिलने के बाद ट्रॉमा खत्म नहीं होता
- रेप के बाद लड़की की पूरी ज़िंदगी पर सामाजिक और मानसिक दबाव
यह साफ दिखाता है कि कानून होने के बावजूद न्याय की प्रक्रिया दलित महिलाओं को पुनः पीड़ित करती है।
बाल विवाह: हर मुद्दे में मौजूद एक साया
रिपोर्ट बताती है कि बाल विवाह लगभग हर इंटरसेक्शनल समस्या में मौजूद है—
- गन्ना मज़दूर परिवारों में
- जोगिनी/देवदासी प्रथा में
- बिहार जैसे राज्यों में बेरोज़गारी और माइग्रेशन के कारण
गरीब दलित परिवार हिंसा से “बचाने” या आर्थिक बोझ कम करने के नाम पर बच्चियों की जल्दी शादी कर देते हैं। कई बार यौन हिंसा के बाद भी चुपचाप शादी कर दी जाती है।
कानून हैं, लेकिन लागू कौन करेगा?
अभीरामी का साफ सवाल है—
“भारत में कानूनों की कमी नहीं है, कमी है उनके लागू होने की।”
- पुलिस और प्रशासन में डोमिनेंट कास्ट का वर्चस्व
- जाति और जेंडर संवेदनशीलता की भारी कमी
- मॉनिटरिंग और जवाबदेही का अभाव
रिपोर्ट मांग करती है कि
- अधिकारियों की नियमित ट्रेनिंग और सेंसिटाइजेशन हो
- जाति-जेंडर पर उनके काम का वार्षिक मूल्यांकन हो
- बिना निगरानी, हालात बदलना असंभव है
निष्कर्ष: किसका विकास?
यह रिपोर्ट एक बार फिर साबित करती है कि जिस आर्थिक विकास की कहानी सुनाई जाती है, वह दलित महिलाओं की कहानी नहीं है।
गन्ना काटने के लिए गर्भाशय निकलवाने को मजबूर महिलाएं, देवदासी प्रथा में फंसी ज़िंदगियाँ, और न्याय के बिना जीता हुआ ट्रॉमा—यह किसी सभ्य समाज की पहचान नहीं हो सकती।
अखिल भारतीय दलित महिला अधिकार मंच की यह रिपोर्ट 2025 के भारत का आईना है—जहाँ सवाल सिर्फ हिंसा का नहीं, बल्कि न्याय, गरिमा और बराबरी का है।
