जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्रोफेसर के निलंबन पर विवाद, छात्रों में गुस्सा
जामिया मिल्लिया इस्लामिया एक बार फिर अकादमिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर चर्चा के केंद्र में है। इस बार मामला किसी छात्र आंदोलन या कैंपस विरोध का नहीं, बल्कि एक प्रोफेसर द्वारा प्रश्नपत्र में पूछे गए सवालों का है। समाजशास्त्र (Social Work) के एक प्रश्नपत्र में अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों के खिलाफ अत्याचारों से जुड़े सवाल के कारण प्रोफेसर विरेंद्र बाला जी सहारे को निलंबित कर दिया गया। यह घटना सिर्फ एक प्रोफेसर के निलंबन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सवाल उठाती है कि आज के ‘विकसित भारत’ में शिक्षा और ज्ञान की सीमाएं कौन तय कर रहा है।
क्या था प्रश्नपत्र में?
जिस प्रश्नपत्र को लेकर विवाद खड़ा हुआ, उसका नाम था Social Problems in India। इसमें पूछे गए सवाल किसी भी तरह से असामान्य या उकसावे वाले नहीं थे, बल्कि समाजशास्त्र और सामाजिक कार्य (Social Work) के पाठ्यक्रम का सामान्य हिस्सा हैं। प्रश्न कुछ इस प्रकार थे:
- सामाजिक समस्या की अवधारणा और विशेषताओं पर चर्चा कीजिए। पारिस्थितिकीय सिद्धांत (Ecological Theory) सामाजिक समस्याओं को समझने में कैसे मदद करता है?
- सामाजिक समस्याओं के सामाजिक प्रभावों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए और ‘क्योरिंग’ तथा ‘केयरिंग’ के संदर्भ में सामाजिक कार्य हस्तक्षेप पर चर्चा कीजिए।
- बेघरपन (Homelessness) को परिभाषित कीजिए और भारत में बेघरपन को समाप्त करने के लिए सामाजिक कार्य हस्तक्षेप योजना तैयार कीजिए।
- भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ अत्याचारों पर उपयुक्त उदाहरणों सहित चर्चा कीजिए।
इन्हीं सवालों में से आख़िरी सवाल—“भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ अत्याचारों पर चर्चा कीजिए”—को आधार बनाकर प्रश्नपत्र तैयार करने वाले प्रोफेसर पर कार्रवाई की गई।
सवाल पूछने पर सज़ा?
यह सवाल अपने आप में भारतीय समाज की एक वास्तविक और प्रलेखित सच्चाई की ओर इशारा करता है। अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा, भेदभाव और संस्थागत पक्षपात पर देश-विदेश में शोध, रिपोर्ट और अध्ययन मौजूद हैं। ऐसे में समाजशास्त्र के छात्रों से इस विषय पर विश्लेषणात्मक सवाल पूछना न सिर्फ़ जायज़ है, बल्कि शैक्षणिक दृष्टि से ज़रूरी भी है।
विडंबना यह है कि आज स्थिति यह हो गई है कि न तो छात्र बेख़ौफ़ होकर सवाल पूछ सकते हैं और न ही प्रोफेसर अकादमिक ईमानदारी के साथ सवाल रख सकते हैं। जामिया जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में एक प्रोफेसर को सिर्फ़ प्रश्नपत्र सेट करने के कारण निलंबित कर दिया जाना, शिक्षा व्यवस्था के लिए एक ख़तरनाक संकेत है।
निलंबन पत्र और प्रशासन का रुख
प्रोफेसर विरेंद्र बाला जी सहारे को जारी निलंबन पत्र में सवालों की ‘संवेदनशीलता’ को आधार बनाया गया। लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया गया कि अकादमिक पाठ्यक्रम के भीतर पूछे गए सवाल किस नियम या क़ानून का उल्लंघन करते हैं। यदि सामाजिक समस्याओं पर आधारित पाठ्यक्रम में भी वास्तविक सामाजिक मुद्दों पर सवाल नहीं पूछे जा सकते, तो फिर समाजशास्त्र, राजनीतिक विज्ञान और इतिहास जैसे विषयों का औचित्य ही क्या रह जाएगा?
शिक्षा का भविष्य और डर का माहौल
यह मामला केवल एक विश्वविद्यालय या एक प्रोफेसर तक सीमित नहीं है। अगर ऐसे ही प्रश्नपत्रों को आधार बनाकर शिक्षकों पर कार्रवाई होती रही, तो देश के अधिकांश सामाजिक विज्ञान विभागों को बंद करना पड़ेगा। क्योंकि सामाजिक विज्ञान का मूल उद्देश्य ही समाज की सच्चाइयों, असमानताओं और अन्यायों को समझना और उन पर सवाल उठाना है।
आज डर का माहौल सिर्फ़ छात्रों में नहीं, बल्कि शिक्षकों में भी है। यह डर कि कहीं कोई सवाल, कोई शोध विषय या कोई व्याख्या ‘असुविधाजनक’ न मान ली जाए। ऐसे माहौल में ‘विकसित भारत’ का सपना किस तरह साकार होगा, यह एक गंभीर सवाल है।
निष्कर्ष
जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्रोफेसर के निलंबन का यह मामला अकादमिक स्वतंत्रता पर सीधा हमला है। यह घटना बताती है कि आज शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान का विस्तार नहीं, बल्कि सत्ता-संगत चुप्पी थोपना बनता जा रहा है। जब न छात्र सवाल पूछ पाएंगे और न प्रोफेसर सवाल रख पाएंगे, तब विश्वविद्यालय सिर्फ़ डिग्री बांटने वाली फैक्ट्रियां बनकर रह जाएंगी।
यह ज़रूरी है कि इस निलंबन पर पुनर्विचार हो और शिक्षा संस्थानों में विचार, बहस और आलोचना की स्वतंत्रता को सुरक्षित किया जाए। क्योंकि सवाल पूछना अपराध नहीं, बल्कि लोकतंत्र और शिक्षा की बुनियाद है।
