राष्ट्र गीत पर राजनीति: इतिहास, मिथक और विभाजन की असल कहानी
वंदे मातरम् — एक गीत, एक नारा और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की धड़कन। लेकिन आज जब संसद में इस पर राजनीतिक बहस छिड़ती है, तो इसके इतिहास का सबसे बड़ा हिस्सा या तो छुपा दिया जाता है या जानबूझकर तोड़ा-मरोड़ा जाता है। तृणमूल कांग्रेस की वरिष्ठ नेता महुआ मोइत्रा ने संसद में अपने भाषण में इस इतिहास को फिर से सामने रखा — तथ्यों, तर्कों और तंज के साथ।
वंदे मातरम् की असली शुरुआत
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का यह गीत पहली बार 1875 में बंगो दर्शन पत्रिका में छपा था। उस समय न RSS था, न हिंदू महासभा, न BJP — सिर्फ बंगाल के कुछ युवा राष्ट्रवादी ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाज़ उठा रहे थे।
सच यह है कि वंदे मातरम् का जन्म बंगाल के सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्य में हुआ — पूरे भारत के राष्ट्रगीत की तरह नहीं।
RSS–BJP और वंदे मातरम्: एक असहज दूरी
महुआ मोइत्रा ने याद दिलाया कि स्वयं संघ परिवार वंदे मातरम् का सामूहिक गायन नहीं करता।
उन्होंने 2017 के दो टीवी प्रसंगों का उदाहरण दिया — जहाँ भाजपा प्रवक्ता और UP के एक मंत्री दोनों गीत ठीक से नहीं गा सके।
2019 में तो BJP नेताओं के प्रदर्शन में मुस्लिमों को गीत गवाने की कोशिश ही अराजकता में बदल गई, क्योंकि नेता खुद गीत नहीं जानते थे।
स्वतंत्रता आंदोलन की धड़कन
ब्रिटिश सरकार ने वंदे मातरम् को राजद्रोह घोषित किया था।
खुदीराम बोस, रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकउल्ला खान जैसे क्रांतिकारी इस नारे के साथ फांसी पर चढ़े।
फिर भी आज राज्यसभा इसे “गैर-गंभीर” बताती है — और महुआ मोइत्रा पूछती हैं:
स्वतंत्रता संघर्ष से आपका कौन-सा रिश्ता है कि आप हमें वंदे मातरम् का अर्थ समझाएँगे?
काला पानी के कैदी: इतिहास जिसे भुला दिया गया
1909–1938 के बीच सेल्युलर जेल के 585 राजनीतिक कैदियों में से 398 बंगाली थे — 68%।
पंजाब दूसरे स्थान पर था।
फिर भी जेल का नाम बंगाल के क्रांतिकारियों पर नहीं रखा गया।
माहौल ऐसा कि बंगाल के योगदान को ही गायब कर दिया गया।
गीत का विकास — बंगाल से भारत तक
महुआ मोइत्रा बताती हैं कि 1875 का गीत बंगाल की भूमि, उसकी संस्कृति और उसकी जनता (सात करोड़) पर केंद्रित था।
इसे अखिल भारतीय पहचान रवींद्रनाथ टैगोर ने दी —
- उन्होंने 1885 में इसे स्वर दिया,
- 1896 में कांग्रेस के अधिवेशन में पहली बार सार्वजनिक रूप से गाया,
- 1905 के स्वदेशी आंदोलन में यह राष्ट्रीय चेतना की आवाज़ बन गया।
टैगोर के नेतृत्व में 1905 के ऐतिहासिक विरोध प्रदर्शन में हिंदू-मुस्लिम भाईचारे का संदेश “वंदे मातरम्” के साथ दिया गया — एकता का यह दृश्य आज लगभग असंभव सा लगता है।
आज का विडंबनापूर्ण भारत
महुआ मोइत्रा ने कटाक्ष के साथ कहा — आज की सरकार, जो वंदे मातरम् की सबसे बड़ी संरक्षक होने का दावा करती है, उसने देश को इस हद तक विभाजित कर दिया है कि
करवाचौथ का चाँद और ईद का चाँद तक अलग-अलग कर दिया गया है।
एक समुदाय पूजा कर सकता है, दूसरा नहीं — वही चाँद, वही आकाश।
गीत का भारतीयकरण — जनता की शक्ति से
1905 में टैगोर की भतीजी ने “सात करोड़” को “तीस करोड़” (भारत की पूरी आबादी) से बदलकर इसे पैन-इंडियन रूप दिया।
तात्कालिक जनता, आंदोलनों और कवियों — जैसे तमिल कवि सुब्रमण्यम भारती — ने इसे पूरे देश का गीत बना दिया।
निष्कर्ष
वंदे मातरम् एक राजनीतिक हथियार नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत है।
यह गीत किसी एक पार्टी, एक विचारधारा, एक समुदाय का नहीं — यह स्वतन्त्रता आंदोलन का है, उन लोगों का है जिन्होंने देश के लिए हँसते-हँसते प्राण दिए।
महुआ मोइत्रा का भाषण हमें याद दिलाता है कि वंदे मातरम् को राजनीतिक नारे में बदल देने से पहले उसके इतिहास को समझना जरूरी है — और उस इतिहास में सबसे बड़ा योगदान उस बंगाल का है जिसे आज अक्सर नजरअंदाज किया जाता है।
