संसद में विशेष बहस: चुनाव, इतिहास और ध्यान भटकाने की राजनीति
संसद के शीतकालीन सत्र के छठे दिन, सोमवार 2 दिसम्बर, वन्दे मातरम पर चर्चा की शुरुआत प्रधानमंत्री ने की।
पहली ही पंक्तियाँ बड़ी आदर्शवादी थीं — राष्ट्र, संस्कृति और गौरव की बातें।
लेकिन अगले ही मिनट बहस किस दिशा में मुड़ गई, यह देखकर पूरा सदन समझ गया कि मुद्दा सिर्फ गीत नहीं, बल्कि राजनीति है।
क्यों उठाया गया यह मुद्दा?
बहस शुरू होते ही विपक्ष से सवाल उभरा —
अभी वन्दे मातरम की अचानक जरूरत क्यों?
जवाब संसद में छुपा नहीं था।
संयोग देखिए — बंगाल में चुनाव है।
और वन्दे मातरम के रचयिता बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय बंगाल के थे।
इसलिए बहस में बंगाल का ज़िक्र, बंगाल का गौरव, बंगाल का प्रेम…
सब कुछ बार-बार लौटकर आया।
प्रियंका गांधी ने सीधा निशाना साधा
जैसे ही मौका मिला, प्रियंका गांधी खड़ी हुईं।
उनका आरोप साफ था:
“सरकार जनता के ज्वलंत मुद्दों से ध्यान हटाना चाहती है।
आप चाहते हैं कि देश अतीत में अटका रहे, वर्तमान की समस्याएँ न दिखें।”
उन्होंने कहा कि भाजपा बार-बार स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं पर नए आरोप लगा कर
पुराने संघर्षों को टटोलती है, ताकि आज की जिम्मेदारी से बचा जा सके।
मौका मिलते ही उन्होंने बैटिंग ऐप के मुद्दे को भी उठाया।
पीएमओ पर सवाल खड़े किए, और इतने तीखे अंदाज़ में कि लोकसभा स्पीकर भी असहज हो गए।
गौरव गोगोई ने RSS की भूमिका याद दिलाई
प्रियंका से पहले कांग्रेस के उपनेता गौरव गोगोई बोले।
उन्होंने प्रधानमंत्री के भाषण को तोड़ा और सीधा ऐतिहासिक प्रश्न पूछा:
“भारत छोड़ो आंदोलन के समय आपके राजनीतिक पूर्वज कहाँ थे?”
फिर उन्होंने याद दिलाया कि भाजपा चाहती थी वन्दे मातरम राष्ट्रीय गान बने।
लेकिन जब पूरे देश ने रवीन्द्रनाथ टैगोर के जन गण मन को राष्ट्रीय गान माना,
तो उन “पूर्वजों” ने लगभग 52 साल तक अपनी शाखाओं में राष्ट्रीय ध्वज नहीं लगाया।
इतिहास सदन में लौट आया।
उद्योग, महँगाई, संकट – कोई बात नहीं
विपक्ष के सांसदों ने कहा:
- महँगाई बढ़ रही है
- रुपए की कीमत गिर रही है
- विमानन क्षेत्र इंडिगो संकट में है
- बाजार में एकाधिकार बढ़ रहा है
पर इन मुद्दों पर सरकार चुप है।
सवाल उठे:
“क्या एक गीत ही राष्ट्रभक्ति का प्रमाण है?”
“अगर वन्दे मातरम पर चर्चा करनी थी, तो संसद में सामूहिक गायन ही काफी था।”
अखिलेश यादव: बाबा साहेब का उदाहरण
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी सरकार पर तीखा हमला बोला।
उन्होंने बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का नाम लेकर पूछा कि जब भाजपा
इतनी श्रद्धा दिखाती है तो अतीत में उनके योगदान को कभी सम्मान क्यों नहीं दिया?
फिर अखिलेश ने अयोध्या के सांसद अभदेश प्रसाद को अपने पास बुलाकर बताया कि
यूपी की जनता ने सांप्रदायिक राजनीति को नकार दिया और हराया।
उनके शब्द थे:
“वन्दे मातरम का भाव यह भी है कि कम्युनल पॉलिटिक्स नहीं चलेगी।”
असली मुद्दे क्या हैं?
विपक्ष बार-बार एक ही बात कहता रहा:
- ध्यान भटकाना
- चुनाव
- हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण
आज जब देश गंभीर आर्थिक और सामाजिक समस्याओं से जूझ रहा है,
विपक्ष का सवाल सीधा था:
“क्या यह समय चुनावी नारों का है या समाधान का?”
बहस बनाम विवाद
वन्दे मातरम गीत हर भारतीय की जुबान पर है।
हर कोई इसे अपने तरीके से व्यक्त करता है:
- जय हिन्द
- हिन्दुस्तान ज़िंदाबाद
- सारे जहाँ से अच्छा
इस पर चर्चा सम्मान का विषय हो सकती थी।
लेकिन जब बहस को विवाद में बदलना हो,
जब जनता का ध्यान हटाना हो,
और जब सामने चुनाव हो,
तब ऐसे मुद्दे ज़रूरी हो जाते हैं।
निष्कर्ष
संसद में वन्दे मातरम पर बहस उस गीत से कम,
और समसामयिक राजनीति से ज्यादा जुड़ी दिखी।
मुद्दा साफ है:
- प्रधानमंत्री की हर बात में चुनावी रणनीति झलकती है
- विपक्ष ने हर मोर्चे पर इतिहास, वर्तमान और अर्थव्यवस्था के सवाल उठाए
- जनता समझ रही है कि बहस किस दिशा में धकेली जा रही है
वन्दे मातरम दिल में बसता है,
विवाद में नहीं।
अब असली मुद्दों पर लौटने का समय है।
सोचिए।
