December 7, 2025 12:38 pm
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मैकॉले पर मोदी–RSS की नई बहस: असल निशाना कौन है?

मैकॉले-विरोध पर मोदी–RSS के तर्कों का विश्लेषण। जानें कैसे यह शिक्षा, दलित अधिकारों, वैज्ञानिक सोच और लोकतांत्रिक मूल्यों पर असर डालता है।

संघ क्यों ला रहा है अपने पुराने एजेंडे को फिर से चर्चा में

राष्ट्रवादी राजनीति में इतिहास का इस्तेमाल नया नहीं है, लेकिन हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रामनाथ गोयनका लेक्चर में जिस तरह लॉर्ड मैकॉले का नाम उठाया, वह केवल ऐतिहासिक बहस नहीं, बल्कि समकालीन राजनीति का संकेत भी है। मोदी ने कहा कि 1835 में मैकॉले द्वारा लाई गई शिक्षा व्यवस्था ने भारत में एक “उपनिवेशिक मानसिकता” पैदा की और 2035 तक, यानी उसके 200 वर्ष पूरे होने से पहले, हमें इस मानसिक गुलामी से मुक्त हो जाना चाहिए।

लेकिन ठीक इसी समय, दलित लेखक और चिंतक चंद्रभान प्रसाद ने बिल्कुल उलट बात कही। उनके अनुसार मैकॉले वह व्यक्ति है जिसने भारत के दलितों, महिलाओं और वंचित समुदायों को पहली बार आधुनिक शिक्षा के दरवाजे खोले। यह दो परस्पर विरोधी व्याख्याएँ हमें यह समझने का अवसर देती हैं कि असल में मोदी और RSS किस बात पर जोर दे रहे हैं, और दलित–बहुजन चिंतक किस बात को इतिहास से निकालकर सामने रखते हैं।

उपनिवेशवाद का सरल इतिहास नहीं होता

मैकॉले वास्तव में ब्रिटिश हाउस ऑफ लॉर्ड्स के सदस्य थे और उनका उद्देश्य “ब्रिटिश मानसिकता वाले” भारतीयों की एक प्रशासनिक जमात तैयार करना था। लेकिन इतिहास में कोई चीज़ एक सीधी, एक-रेखीय दिशा में नहीं चलती।

ब्रिटिश शिक्षा व्यवस्था ने अपनी तमाम कमियों—औपनिवेशिक अहंकार, सीमित पाठ्यक्रम, सत्ता-केन्द्रित सोच—के बावजूद भारत में उदार लोकतांत्रिक विचार, आधुनिक विज्ञान, तर्कवादी सोच और सामाजिक सुधारों के नए बीज बोए।

गुरुकुल आधारित ब्राह्मणवादी शिक्षण पद्धति केवल उच्च वर्णों तक सीमित थी। ब्राह्मण और क्षत्रिय ही पढ़ते थे, बाकी समाज शिक्षा से वंचित रहता था। ब्रिटिश काल में पहली बार शिक्षा सभी के लिए उपलब्ध हुई—दलितों, महिलाओं, पिछड़े समुदायों, और गरीब वर्गों के लिए भी। यह वही दौर था जब:

  • महात्मा गांधी
  • सरदार पटेल
  • जवाहरलाल नेहरू
  • सुभाषचंद्र बोस

जैसे नेता आधुनिक शिक्षा लेकर लौटे और आज़ादी आंदोलन की बौद्धिक दिशा तय की।

RSS–मोडी की विचारधारा और ‘मैकॉले-विरोध’ का वास्तविक उद्देश्य

RSS की मूल विचारधारा—जिसे गोलवलकर और हेडगेवार ने गढ़ा—कभी भी औपनिवेशिक शासन के खिलाफ बड़े संघर्ष का हिस्सा नहीं रही। उनका मुख्य विरोध मुसलमानों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों को लेकर था। ऐसे में आज अचानक मैकॉले-विरोध का मुद्दा उठाना केवल इतिहास की बहस नहीं, बल्कि एक राजनीतिक प्रोजेक्ट का हिस्सा है।

1. शिक्षा को फिर से वर्णवादी ढांचे की ओर धकेलना

नई शिक्षा नीति (NEP) में कई ऐसे प्रावधान हैं जो शिक्षा को:

  • निजीकरण
  • व्यावसायीकरण
  • छंटनी आधारित मॉडल

की ओर ले जाते हैं। इससे स्वाभाविक रूप से पिछड़े समुदाय, दलित, गरीब और ग्रामीण तबके बाहर होते जाएंगे। इसी के साथ RSS बार–बार “गुरुकुल मॉडल” की बात करता है, जो ऐतिहासिक रूप से सिर्फ सवर्णों तक सीमित था।

मैकॉले-विरोध के पर्दे में यह प्रयास है कि शिक्षा फिर से उच्च वर्णों की बपौती बने।

2. तर्क, विज्ञान और ‘वैज्ञानिक चेतना’ के खिलाफ अभियान

भारत का संविधान हमसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने की अपेक्षा करता है। लेकिन आज सत्ता–समर्थित विमर्श तर्क नहीं, आस्था और अंधविश्वास को बढ़ावा देता है।
यही वजह है कि:

  • संस्कृतिवाद
  • पौराणिक व्याख्याएँ
  • वैज्ञानिकता-विरोधी दावे

मुख्यधारा में स्थापित किए जा रहे हैं।

मैकॉले-विरोध इस वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक सोच पर हमला करने का एक सुविधाजनक बहाना है।

3. हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति का एजेंडा: एक भाषा, एक संस्कृति, एक धर्म

मैकॉले-विरोध का एक और राजनीतिक लक्ष्य है—RSS के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को मजबूत करना।

आज तीन चीजें स्पष्ट दिखती हैं:

  1. एक धर्म: हिंदू धर्म का सवर्ण संस्करण केंद्र में।
  2. एक भाषा: हिंदी को अत्यधिक प्राथमिकता।
  3. एक सत्ता केंद्र: संघीय ढांचे को कमजोर कर केंद्र को मजबूत करना।

यह वही औपनिवेशिक ढांचा है जिसके खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया, पर आज उसे ही नए रूप में स्थापित किया जा रहा है।

स्वतंत्रता आंदोलन बनाम हिंदुत्व मॉडल

भारत का स्वतंत्रता आंदोलन—गांधी, नेहरू, अंबेडकर, मौलाना आज़ाद, भगत सिंह, नज़रुल—सभी की सोच एक आधुनिक, बहु-धार्मिक, बहु-भाषायी, समानतावादी भारत की थी। यही सोच संविधान में भी दिखाई देती है।

इसके उलट आज जो राष्ट्रवाद खड़ा किया जा रहा है, वह:

  • विविधता के खिलाफ
  • भाषाई बहुलता के खिलाफ
  • तर्क और विज्ञान के खिलाफ
  • राज्य–केंद्रित औपनिवेशिक मॉडल के समर्थन में है

अविश्वसनीय विडंबना यह है कि मोदी–RSS जिस “उपनिवेशिक मानसिकता” की बात करते हैं, वही मानसिकता आज शिक्षा, भाषा और संस्कृति के उनके मॉडल में सबसे ज्यादा झलकती है।

मैकॉले एक बहाना: असल निशाना दलित–बहुजन उन्नति और वैज्ञानिक सोच

मैकॉले-विरोध का यह विमर्श एक आवरण है। इसका असल लक्ष्य तीन बातें हैं:

  1. शिक्षा को सामंती–सवर्ण मॉडल में वापस ले जाना
  2. दलित–बहुजन समुदायों की आधुनिक शिक्षा से मिली बढ़त को कमजोर करना
  3. संवैधानिक–वैज्ञानिक सोच को हटाकर आस्था-आधारित राजनीति को बढ़ाना

जब शिक्षा, भाषा, संस्कृति और इतिहास—सबको RSS–मोडी फ्रेम में दोबारा गढ़ा जा रहा है, तब मैकॉले पर हमला एक राजनीतिक हथियार बन जाता है।

निष्कर्ष

मैकॉले का नाम आज इसलिए नहीं उठ रहा क्योंकि सरकार को अचानक औपनिवेशिक इतिहास याद आ गया है। इसके पीछे आधुनिक शिक्षा, बहु-धार्मिक संस्कृति और वैज्ञानिक सोच—इन तीन स्तंभों को कमजोर करने की एक सुव्यवस्थित कोशिश है।

भारत की वास्तविक शक्ति उसकी विविधता, तर्कशीलता और समानता में है। यही वे चीजें हैं जिन्हें आज सबसे अधिक खतरा है।

राम पुनियानी

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