December 7, 2025 5:43 pm
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आतंकवाद और इस्लामोफ़ोबिया: मुसलमान होना ही बना दिया गया है गुनाह!

भारत में मुस्लिमों को झूठे आतंकी मामलों में फँसाने, सालों जेल में सड़ाने और बरी होने के बाद भी कलंक ढोने की सच्ची कहानियाँ। दोहरे न्याय पर विस्तृत विश्लेषण।

मुस्लिमों के ‘विच-हंट’ की राजनीति — बेगुनाहों को आतंकवादी बनाने का संगठित खेल

अब वो नहीं बचेगा… उसका चेहरा उस आतंकवादी से मिलता है जिसे किसी ने नहीं देखा।
यही वह वाक्य है जो आज इस देश के एक बड़े समुदाय की नियति बन गया है—जहाँ नाम ही गुनाह बन जाता है, और पहचान ही अपराध।

भारत में इस्लामोफ़ोबिया अब एक राजनीतिक औजार बन चुका है। किसी वारदात के बाद पूरा मुस्लिम समुदाय दहशत में चला जाता है—क्योंकि पता नहीं कब किसका नाम, किसका फोटो, किसका अतीत ‘संदिग्ध’ बता दिया जाए और उसे सालों-साल जेल की अंधेरी कोठरी में सड़ने के लिए छोड़ दिया जाए।

बिना सबूत ‘आतंकवादी’ घोषित करने की पत्रकारिता

दिल्ली ब्लास्ट उसकी ताज़ा मिसाल है।
जैसे ही धमाका हुआ, पुलिस, वकील, जज—सभी की भूमिका मीडिया ने खुद ही निभा ली।
“सूत्रों” के हवाले से ऐसी कहानियाँ दिखाई गईं कि लोग दहशत में आ जाएँ।
कोई व्यक्ति सिर्फ पूछताछ के लिए बुलाया गया था, लेकिन टीवी स्क्रीन पर उसे ‘आतंकवादी’ घोषित कर दिया गया। उसके परिवार की डिटेल्स, घर का पता, रिश्तेदारों की जानकारी—सबकुछ लाइव दिखा दिया गया।

लेकिन सच्चाई क्या निकली?

NIA ने इस मामले में नूंह से गिरफ्तार किए गए चार लोगों–डॉ. रेहान, डॉ. मोहम्मद, डॉ. मुस्तकीम और व्यापारी दिनेश सिंगला – को रिहा कर दिया।
उन पर कोई ठोस सबूत नहीं मिला।
लेकिन अगर वे कुछ महीनों तक भी जेल में रहते, तो टीवी स्टूडियो और साम्प्रदायिक नेता उन्हें अदालत से पहले ही सजा दे चुके होते।

ऐसे दर्जनों मामले: 10, 15, 20 साल बाद बरी

भारत के इतिहास में ऐसे सैकड़ों मामले हैं जहाँ मुसलमानों को आतंकवाद के झूठे आरोप में पकड़ा गया और 10–20 साल बाद बरी किया गया।
लेकिन जब तक वे निर्दोष साबित होते हैं—उनकी ज़िंदगी, करियर, परिवार, सामाजिक सम्मान सब बर्बाद हो चुका होता है।

1. गाज़ियाबाद बस ब्लास्ट केस (1996) – 29 साल बाद बरी

19 नवंबर 2025 — इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक आरोपी को बरी किया।
कोर्ट ने कहा:

अभियोजन पक्ष 29 साल बाद भी ठोस सबूत नहीं दे पाया।

लेकिन जज ने यह भी कहा कि वे “भारी मन” से यह आदेश दे रहे हैं।
सवाल यह है—भारी मन सिर्फ एक आरोपी के लिए क्यों?
उन एजेंसियों के लिए क्यों नहीं, जिन्होंने 29 साल तक एक इंसान को आतंकवादी बताने का बोझ उसके सिर पर रख छोड़ा?

2. मालेगाँव ब्लास्ट (2008) – सभी आरोपी बरी, लेकिन ‘भारी मन’ कहाँ गया?

31 जुलाई 2025 को मुंबई की विशेष NIA अदालत ने बीजेपी की पूर्व सांसद सहित सभी सात आरोपियों को बरी कर दिया।

जज ने कहा:

अभियोजन पक्ष निर्णायक सबूत नहीं दे पाया।

लेकिन 7 लोगों की मौत और 100 से ज्यादा घायल हुए… फिर भी किसी को भारी मन नहीं दिखा।
उल्टा, प्रग्या ठाकुर राजनीति में आ गईं, सांसद बनीं, और हिंदुत्व के नायक के रूप में पेश की गईं।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने सोशल मीडिया पर लिखा:

“आतंकवाद कभी भगवा नहीं था, न है, न रहेगा।”

क्या कभी किसी मुस्लिम आरोपी के लिए मुख्यमंत्री ने ऐसा लिखा?

3. मुंबई ट्रेन ब्लास्ट (2006) — 12 लोग 19 साल बाद बरी

11 जुलाई 2006 के धमाकों में 12 लोगों को 2015 में फाँसी और उम्रकैद मिली थी।
2025 में हाई कोर्ट ने सभी को बरी कर दिया।
लेकिन इनमें से एक बेगुनाह कमाल अंसारी, 2021 में जेल में ही मर गया।
उसकी बेगुनाही की खबर उसके लिए अब किसी मायने की नहीं थी।

4. गुजरात UAPA केस (2001) — 127 मुस्लिम गिरफ्तार, 19 साल बाद सभी बरी

ये लोग एक शिक्षा संगोष्ठी में हिस्सा ले रहे थे।
उन्हें सिमी से जोड़कर गिरफ्तार किया गया।
सुनवाई के दौरान 5 की मौत हो गई।
बाकियों की ज़िंदगियाँ तबाह हो चुकी थीं—नौकरियाँ गईं, परिवार टूटे, सामाजिक कलंक लगा।

5. नांदेड़ ब्लास्ट (2006) — हिंदू आरोपी बरी

नांदेड़ में एक घर में बम बनाते समय विस्फोट हुआ था।
दो लोग मारे गए थे।
चार्जशीट में कहा गया था कि हिंदू संगठनों से जुड़े लोग थे।
लेकिन अदालत ने कहा—
सिर्फ साहित्य या नोट्स मिल जाना, आतंक की साजिश नहीं साबित करता।

क्या यही कसौटी मुस्लिम आरोपियों पर भी लागू होती है?

6. मोहम्मद आमिर – दिल्ली का नौजवान, 14 साल जेल में

उन्हें 19 मामलों में आरोपी बनाया गया।
अगवा किया गया, यातनाएँ दी गईं, झूठे केस लगाए गए।
14 साल बाद सभी मामलों में बरी हुए।

लेकिन तब तक:

  • पिता गुजर चुके थे
  • माँ लकवाग्रस्त हो चुकी थीं
  • घर बर्बाद था
  • भविष्य खत्म हो चुका था

फिर भी मोहम्मद आमिर आज संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के संघर्ष में लगे हुए हैं।

हिंदू आरोपी बनाम मुस्लिम आरोपी — दो अलग-अलग न्याय

इन सभी मामलों में दो पैटर्न साफ दिखता है:

जब आरोपी हिंदू होता है:

  • उसे “देशभक्त” कहा जाता है
  • नेता उसके समर्थन में उतर आते हैं
  • मीडिया उसे महिमामंडित करता है
  • अदालत के फैसले के बाद उसे स्वागत मिलता है

जब आरोपी मुस्लिम होता है:

  • उसे तुरंत आतंकवादी घोषित कर दिया जाता है
  • पूरा समुदाय कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है
  • उसे देशद्रोही बताया जाता है
  • बरी होने के बाद भी कलंक नहीं हटता

मॉब लिंचिंग — यह भी आतंकवाद है

अखलाक का दादरी मॉब लिन्चिंग केस—
UP सरकार आरोपियों से केस वापस लेने जा रही है।

बिलकिस बानो केस—
बलात्कारियों के फूल-मालाओं से स्वागत हुए।
सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा कि वे फिर जेल भेजे जाएँ।

यह समाज, शासन और सिस्टम का दोहरा चेहरा है।

भारत का पहला आतंकवादी कौन था?

नाथूराम गोडसे।
जिसने महात्मा गांधी की हत्या की।
लेकिन आज उसे महिमामंडित किया जाता है, उसका समर्थन किया जाता है, उसके कृत्य को जायज़ ठहराया जाता है।

तो फिर आतंकवाद की परिभाषा क्या है?
धर्म?
जाति?
राजनीतिक सुविधा?

निष्कर्ष: आतंकवाद की निंदा करें—लेकिन समुदाय को दोषी मत बनाइए

आतंकवाद अपराध है, और उसकी निंदा एक-स्वर में होनी चाहिए—चाहे अपराधी हिंदू हो या मुस्लिम।
लेकिन किसी एक के अपराध की आड़ में पूरे समुदाय को देशद्रोही बताना—यह नफ़रत की राजनीति का सबसे खतरनाक रूप है।

जैसा हम अपने लिए नहीं चाहेंगे—वैसा दूसरों के लिए भी नहीं चाहना चाहिए।
इसी सोच से यह देश सुरक्षित रहेगा, और लोकतंत्र भी।

मुकुल सरल

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