चेतावनी कूड़ेदान में | आपदा प्रभावित उत्तरकाशी इलाके में धामी सरकार की नेताला बाईपास को मंजूरी
पैरों पर कुल्हाड़ी मारना कोई उत्तराखंड जैसी सरकारों से सीखे। इस साल बारिश के मौसम में धराली, थराली, स्यानचट्टी, रुद्रप्रयाग, छेनागाड़, चमोली, धौलीगंगा – इन सब जगहों पर एक के बाद एक हुए हादसों के बाद यह समझा जा सकता था कि सरकारें होश में आएंगी और इको सेनसेटिव इलाकों में पहाड़ों व इकोलॉजी को नुकसान पहुंचाने वाली परियोजनाओं, चौड़ी सड़कों और उनके लिए पेड़ों की कटाई से बाज आएंगी, लेकिन ऐसा कतई नहीं है। यह वह किस लालच में और किस मनोदशा में कर रही है, यह समझना मुश्किल है, लेकिन यह हकीकत है कि वह सारी चेतावनियों को ताक पर रखकर ऐसे फैसले कर रही हैं। वह भी उस समय जब हम लगातार देख रहे हैं कि बारिश का चक्र और तेजी में खासा बदलाव नजर आ रहा है और आपदाएं ज्यादा भीषण होने लगी हैं और ज्यादा जगहों पर आने लगी हैं। इस समय भी राज्य में तमाम रास्ते बंद हैं। माली नुकसान का तो फिलहाल अंदाजा भी लगाना मुश्किल है, यहां तक कि कितनी इंसानी जानें गई हैं, इसका भी फिलहाल कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।
नेताला बाईपास को मंजूरी
खबर है कि उत्तराखंड सरकार के अधीन काम करने वाले राज्य के वन विभाग ने उत्तरकाशी जिले में भागीरथी इको-सेंसेटिव जोन में नेताला बाईपास को मेंजूरी दे दी है, जबकि न तो स्थानीय लोग, न स्थानीय प्रशासन और न ही स्थानीय जनप्रतिनिधि इस बाईपास को बनाने के पक्ष में हैं। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एक उच्च स्तरीय कमिटी साल 2020 में ही इस बाईपास के प्रस्ताव को खारिज़ कर चुकी थी। लेकिन उसके बावजूद यह योजना रद्द नहीं हुई और लगातार फाइलों में चलती रही और अब इसे मंजूरी दे दी गई है। इसके लिए 17.5 हेक्टेयर के वन इलाके को डाइवर्ट किया जाएगा यानी, जंगल को सड़क में तब्दील करने के लिए अब तक अछूते रहे जंगलों में करीब 2750 पेड़ काटे जाएंगे, जिनमें ज्यादातर देवदार के हैं।
बीती 5 अगस्त को गंगोत्री से करीब बीस किलोमीटर पहले धराली में खीर गाड़ में अचानक आई के बाद भी लोगों के जेहन में एक बड़ा सवाल इस नाजुक पारिस्थितिकी वाले इलाके में पेड़ काटे जाने और सड़कों के लिए पहाड़ काटे जाने के बारे में था। लेकिन हैरानी की बात है कि सरकार ने उसी इलाके में सड़क बनाने की मंजूरी दे दी है। हालांकि यह मंजूरी धराली हादसे से दो हफ्ते पहले यानी 21 जुलाई को दे दी गई थी, लेकिन इसे सार्वजनिक नहीं किया गया था। अब कुछ अखबारों में इस मंजूरी को लेकर खबरें प्रकाशित हो चुकी हैं। सरकार ने धराली व अन्य हादसों के बाद भी इस बाईपास की मंजूरी पर पुनर्विचार करने की कोई मंशा नहीं दिखाई, जबकि धराली के बाद उत्तराखंड के कई भूवैज्ञानिक नेताला बाईपास ही नहीं बल्कि समूची चारधाम सड़क परियोजना के मौजूदा स्वरूप को टालने के लिए जोरदार आवाज उठा रहे थे।

भारी लैंडस्लाइड जोन
आइए, थोड़ा आपको इस इलाके के नक्शे और सड़कों की स्थिति के बारे में समझाते हैं। उत्तरकाशी शहर से हम जैसे ही गंगोत्री की तरफ बढ़ते हैं तो थोड़ा ही आगे तेखला नाम की जगह आती है। तेखला से थोड़ा और आगे बढ़ें तो भटवाड़ी से पहले हीना नाम की जगह आती है। बाईपास इसी तेखला से हीना के बीच 8.70 किलोमीटर की दूरी के लिए बनना है। उत्तरकाशी से आगे बढ़ते ही चढ़ाई शुरू हो जाती है। यहां के पहाड़ों की हालत बहुत नाजुक है। जो यहां जमाने से बनी हुई सड़क है, उसे भी चौड़ी करने की योजना चारधाम प्रोजेक्ट के तहत पहले ही चल रही है। इसी में अब यह तेखला-हीना बाईपास का नया मसला जुड़ गया। इसी को नेताला बाईपास के नाम से भी जाना जाता है। कहा यह जाता रहा है कि मौजूदा नेशनल हाइवे पर तेखला से हीना के बीच लैंडस्लाइड जोन से बचने के लिए यह बाईपास जरूरी है। चूंकि यह सीमावर्ती इलाका है इसलिए यहां राजमार्गों को बनाने का काम सीमा सड़क संगठन करता है।

इस बाईपास के प्रस्ताव का इतिहास भी काफी हैरान करने वाला है क्योंकि यह कोई नया प्रस्ताव नहीं, सालों पुराना है और इसका लगातार विरोध होता रहा है। विरोध करने वालों में स्थानीय लोग और व्यवसायी भी रहे हैं और वैज्ञानिक व पर्यावरण कार्यकर्ता भी। 2013 में आए केदारनाथ प्रलय के बाद से राज्य में इस तरह के निर्माण पर निगरानी बढ़ी है। केदारनाथ आपदा के बाद सुप्रीम कोर्ट ने राज्य में अलकनंदा और भागीरथी बेसिन में 24 प्रस्तावित बिजली परियोजनाओं पर रोक लगा दी थी और केंद्र सरकार से एक विशेषज्ञ समिति बनाने को कहा था। जाने-माने पर्यावरणविद रवि चोपड़ा इसके प्रमुख बनाए गए। बाद में 2019 में सुप्रीम कोर्ट की ही निगरानी में एक और हाई पावर कमिटी रवि चोपड़ा की ही अध्यक्षता में चारधाम सड़क परियोजना की समीक्षा के लिए बनाई गई औऱ उसे राज्य की तमाम सड़कों पर निगाह डालने को भी कहा गया।

वन अधिनियम में छूट का तोड़
केदारनाथ आपदा से एक साल पहले 2012 में राज्य सरकार ने उत्तरकाशी से गंगोत्री के बीच 4,157 वर्ग किलोमीटर इलाके में भागीरथी इको-सेंसेटिव जोन नोटिफाई किया था ताकि गंगा नदी के उदगम के आगे उसकी पारिस्थितिकी को बचाया जा सके। नेताला बाईपास इसी जोन में आता है। रवि चोपड़ा कमिटी ने साल 2020 में ही अपनी रिपोर्ट में इस बाईपास के प्रस्ताव को खारिज करके मौजूदा राष्ट्रीय राजमार्ग को ही बेहतर करने का सुझाव दिया था। कमिटी का मानना था कि तेखला के आगे जो लैंडस्लाइड प्रभावित दलदली जमीन है, उसे ठीक किया जा सकता है।
लेकिन उत्तराखंड सरकार ने वन (संरक्षण व संवर्धन) अधिनियम 1980 में मौजूद छूट के एक प्रावधान का इस्तेमाल नेताला बाईपास को मंजूरी देने के लिए किया, जिसमें कहा गया है कि राष्ट्रीय महत्व की सामरिक परियोजनाओं को केंद्र की समीक्षा के बिना ही राज्य सरकार अपने स्तर पर मंजूरी दे सकती है। लिहाजा इस बाईपास को मंजूरी देने के लिए पूरा रास्ता बनाया गया। अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने 29 जुलाई 2024 को यह खबर दी थी कि सीमा सड़क संगठन ने इस बाईपास के लिए वन मंजूरी केंद्रीय वन व पर्यावरण मंत्रालय से मांगी है। उसके बाद सितंबर में रक्षा मंत्रालय ने इस हिस्से को सामरिक व राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से महत्वपूर्ण घोषित कर दिया। फिर नवंबर में केंद्रीय वन व पर्यावरण मंत्रालय ने राज्य सरकार के वन विभाग को कह दिया कि वह इसे अपने वन अधिनियम के छूट प्रावधान के तहत मंजूरी दे दे। इस तरह उत्तरकाशी के वनाधिकारी और राज्य की नोडल एजेंसी से होते हुए आखिरकार इस बाईपास को मंजूरी मिल गई और उच्चाधिकार समिति की सिफारिशों की कोई अहमियत नहीं रही।

कई स्तरों पर विरोध
धराली हादसे के बाद भी उच्चाधिकार समिति के दो पूर्व सदस्यों भूगर्भशास्त्री नवीन जुयाल और पर्यावरणविद हेमंत ध्यानी ने सरकार से अनुरोध किया था कि वह चारधाम प्रोजेक्ट पर पुनर्विचार करे और नेताला बाईपास का इरादा त्याग दे क्योंकि वह उस जंगल से गुजरता है जो पहले ही पुराने लैंडस्लाइड डिपॉजिट पर खड़ा है। उसी में से कई जलधाराएं बहती हैं। वहां पेड़ों को काटकर उस अस्थिर जमीन पर सड़क बनाई गई तो बहुत नुकसान होगा। इस अगस्त में भी वहां प्रस्तावित बाईपास के रास्ते में काफी मलबा नीचे भागीरथी में जा गिरा था।इन दोनों ने केंद्रीय सड़क परिवहन व राजमार्ग मंत्रालय को एक विस्तृत नोट भी पिछले हफ्ते भेजा था।
स्थानीय स्तर पर लोगों में भी इस बाईपास का विरोध है। बेशक विरोध करने वालों में वे लोग भी हैं जिनकी रोजी रोटी पर असर बाईपास बनने से पड़ेगा। लेकिन धराली हादसे के बाद लोगों में दहशत है और वे पेड़ों की कटाई औऱ सड़कों को चौड़ी करने के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। हालांकि आम लोगों में विरोध तो कई सालों से हो रहा है। मार्च 2023 में भी आल वेदर चार धाम सड़क संघर्ष समिति ने इस बाईपास को पर्यावरण के लिए खतरनाक बताते हुए इसके खिलाफ ज्ञापन सौंपा था। उन्होंने यह भी कहा था कि आगे ही मानेरी बांध की टनल भी है, जो किसी भी निर्माण से बैठ सकती है। फिर जुलाई 2024 में भी इस समिति ने हाई पावर कमिटी के मौजूदा अध्यक्ष एके सीकरी को बाईपास के विरोध में ज्ञापन सौंपा था। हिमालयन नागरिक दृष्टि मंच नाम के एक संगठन ने भी बाईपास को मंजूरी के खिलाफ पिछले हफ्ते कई लोगों को ज्ञापन भेजा है।

सीखे नहीं कोई सबक
नेताला बाईपास से 70 किलोमीटर आगे ही धराली है। इस गंगोत्री हाइवे पर उत्तरकाशी जिले में चुंगी बड़ेथी से भैरोंघाटी तक पांच चरणों में सड़क चौड़ी करने की योजना है। झाला से लेकर हर्षिल और धराली होते हुए जांगला पुल तक के दस किलोमीटर के रास्ते में सड़क को चौड़ा करने के लिए देवदार के करीब छह हजार पेड़ों को काटने की निशानदेही कर ली गई है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि जो इलाका पहले ही इतनी तबाही देख रहा है, उसको और विनाश की तरफ धकेला जा रहा है। वह भी तब है जब करीब एक महीना होने के बाद भी धराली जाने वाली सड़क अभी तक खुल नहीं पाई है क्योंकि कई जगहों से सड़क पूरी बह चुकी है।
लेकिन केंद्र व राज्य सरकार हमेशा denial मोड में ही रहती हैं। फरवरी 2021 में जब चमोली जिले में धौलीगंगा में बाढ़ से कई लोगों की जानें गईं थीं और तपोवन हाइड्रो प्रोजेक्ट को नुकसान पहुंचा था तो हाईपावर कमिटी के चेयरमैन रवि चोपड़ा ने इस घटना को चारधाम प्रोजेक्ट से जोड़ा था। लेकिन तब राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि ऐसा नहीं है। खुद सुप्रीम कोर्ट ने दिसंबर 2021 में राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला देते हुए चारधाम प्रोजेक्ट पर उठाई गई पर्यावरण संबंधी सारी आपत्तियों को खारिज़ कर दिया था। मजेदार बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने तो उस फैसले में रक्षा मंत्रालय द्वारा मांगी गई सड़कों की चौड़ाई से भी तीन मीटर बढ़ाकर चौड़ाई तय कर दी थी।
इन हालात में यह साफ दिख रहा है कि सरकारी फैसलों में इस इलाके की पारिस्थतिकी और पर्यावरण की चिंता प्राथमिकता में नहीं है। ऐसे में जब आबोहवा तेजी से बदल रही है और मौसम की मार लगातार तेज हो रही है तो लगता है कि सरकारों ने अपने एजेंडे के आगे सदबुद्धि को तिलांजलि दे दी है।