केस वापसी की याचिका खारिज, हत्यारोपियों पर चलता रहेगा केस
अखलाक मॉब लिंचिंग मामले में उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार को बड़ा कानूनी झटका लगा है। ग्रेटर नोएडा के सूरजपुर स्थित सेशन कोर्ट ने राज्य सरकार की ओर से दाखिल उस याचिका को खारिज कर दिया है, जिसमें इस मामले में केस वापस लेने की मांग की गई थी। अदालत ने साफ कहा कि इस तरह की याचिका स्वीकार करने का कोई कानूनी आधार नहीं बनता।
इस आदेश के बाद एक बार फिर उम्मीद जगी है कि दादरी के बिसाड़ा गांव में भीड़ हिंसा का शिकार हुए मोहम्मद अखलाक और उनके परिवार को न्याय मिल सकेगा। लेकिन इस पूरे मामले ने एक गंभीर और परेशान करने वाला सवाल भी खड़ा कर दिया है—जो सरकार कभी आरोपियों के खिलाफ खड़ी थी, वही सरकार आज उनके पक्ष में क्यों दिखाई दे रही है?
एक ही सरकार, दो तर्क
2017 में योगी सरकार का तर्क था कि गवाहों के बयानों में विरोधाभास हैं, इसलिए मामले में ट्रायल चलना जरूरी है। लेकिन 2025 आते-आते सरकार का रुख पूरी तरह पलट गया। अब वही योगी सरकार कह रही है कि गवाहों में विरोधाभास हैं, इसलिए ट्रायल चलाने की कोई जरूरत ही नहीं है।
यह फर्क दो अलग-अलग सरकारों का नहीं, बल्कि एक ही सरकार—योगी सरकार—का है। फर्क बस इतना है कि 2017 में जब इस मामले में सुनवाई चल रही थी, तब योगी आदित्यनाथ नए-नए मुख्यमंत्री बने थे। अब 2027 के विधानसभा चुनाव नजदीक हैं और योगी आदित्यनाथ खुद को हिंदुत्व के सबसे बड़े ‘चैंपियन’ के रूप में पेश करने की होड़ में दिखाई दे रहे हैं—यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी बड़ा नेता बनने की कोशिश में।
इसी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का नतीजा है कि आज सरकार खुले तौर पर हत्या के आरोपियों के साथ खड़ी नजर आ रही है, भले ही इसके लिए कानून और इंसाफ की बलि क्यों न देनी पड़े। योगी सरकार की भाषा में कहें तो मानो कानून और न्याय पर ही बुलडोजर चलाया जा रहा हो।
क्या था अखलाक मॉब लिंचिंग मामला?
सितंबर 2015 में गौमांस रखने की अफवाह के बाद दादरी के बिसाड़ा गांव में मोहम्मद अखलाक को उनके घर से बाहर घसीट कर पीट-पीटकर मार डाला गया था। इस हमले में उनके बेटे भी गंभीर रूप से घायल हुए थे। यही वह घटना थी, जिसके बाद देश ने ‘मॉब लिंचिंग’ शब्द को व्यापक रूप से सुना और समझा।
पुलिस ने इस मामले में 19 लोगों को आरोपी बनाया था, जिनमें एक स्थानीय बीजेपी नेता का बेटा भी शामिल था। आरोपियों पर हत्या, दंगा और आपराधिक धमकी जैसी गंभीर धाराएं लगाई गई थीं। यह मामला देश में कानून के राज और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की कसौटी बन गया था।
सरकार की कोशिश और अदालत का हस्तक्षेप
अब योगी सरकार चाहती है कि इस मामले के सभी आरोपी बरी हो जाएं और उनके खिलाफ लगे सभी आरोप हटा दिए जाएं। इसी उद्देश्य से सरकार ने ट्रायल कोर्ट में केस वापसी की अर्जी दी थी। लेकिन राहत की बात यह है कि अदालत ने सरकार की दलीलों को मानने से इनकार कर दिया और याचिका खारिज कर दी।
दूसरी ओर, यूपी सरकार की इस कोशिश के खिलाफ अखलाक का परिवार इलाहाबाद हाई कोर्ट भी पहुंच चुका है। यानी जिस मामले को यह संदेश देना था कि भारत में कानून और इंसाफ का राज है, वही मामला आज सरकार की नीयत पर सवाल खड़े कर रहा है।
मॉब लिंचिंग और लोकतंत्र का संकट
अखलाक की हत्या को एक मिसाल बनना था—यह बताने के लिए कि किसी निर्दोष की हत्या बर्दाश्त नहीं की जाएगी, चाहे वह हिंदू हो या मुस्लिम, और कोई भी आरोपी बख्शा नहीं जाएगा। संदेश साफ होना चाहिए था कि मॉब लिंचिंग का सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं है।
लेकिन हकीकत यह है कि अखलाक के बाद पहलू खान, रकबर खान जैसे न जाने कितने नाम इस हिंसा की भेंट चढ़ गए। मॉब लिंचिंग का एक खतरनाक सिलसिला शुरू हो गया।
अगर सरकारें ही मॉब लिंचिंग करने वालों और हत्यारों के साथ खड़ी हो जाएं, तो यह समाज और लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक संदेश होगा। फिर सवाल उठता है कि ऐसी सरकारें बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रही भीड़ हिंसा के खिलाफ किस नैतिक आधार पर आवाज उठाएंगी? पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न को किस मुंह से मुद्दा बनाएंगी?
आगे क्या?
अब देखना होगा कि योगी सरकार इस मामले को आगे कैसे बढ़ाती है। इस केस को मजबूती से आगे ले जाना सरकार की जिम्मेदारी है, ताकि कानून और इंसाफ पर लोगों का भरोसा बना रहे। हालांकि, सच्चाई यह है कि पीड़ित परिवार का भरोसा अब सरकार से उठ चुका है।
अखलाक के परिवार को अब अपनी न्याय की लड़ाई खुद ही लड़नी होगी—एक ऐसे सिस्टम में, जहां सत्ता खुद कटघरे में खड़ी दिखाई दे रही है।
