December 15, 2025 10:09 am
Home » दुनियाभर की » यूपी में डिटेंशन सेंटर और ‘घुसपैठिया’ अभियान

यूपी में डिटेंशन सेंटर और ‘घुसपैठिया’ अभियान

उत्तर प्रदेश में डिटेंशन सेंटर बनाने और ‘घुसपैठियों’ के नाम पर चल रहे अभियान पर गंभीर सवाल। क्या यह सुरक्षा है या नागरिक अधिकारों पर हमला? बेबाक विश्लेषण।

घुसपैठियों के नाम पर अपनी ही जनता के ख़िलाफ़ सर्जिकल स्ट्राइक!

अब तक ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ शब्द हमने पाकिस्तान के संदर्भ में सुना था। लेकिन अब वही भाषा, वही मुहावरा, देश के भीतर, अपनी ही जनता के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने ‘घुसपैठियों’ के नाम पर एक ऐसा अभियान शुरू करने की घोषणा की है, जिसका खाका यानी ब्लूप्रिंट बाकायदा जारी किया गया है। इस ब्लूप्रिंट के तहत स्थानीय निकायों और थानों को ‘संदिग्ध घुसपैठियों’ की सूची तैयार करने के निर्देश दिए गए हैं और मंडल व जिला स्तर पर डिटेंशन सेंटर बनाए जाने की बात कही गई है। सवाल यह है कि यह सफाई अभियान है या सफाया?

घुसपैठिया कौन? नागरिक कौन?

कौन नहीं चाहेगा कि अवैध रूप से देश में रह रहे विदेशी नागरिकों को बाहर निकाला जाए। लेकिन सबसे बुनियादी सवाल यही है कि ‘घुसपैठिया’ की पहचान कैसे होगी? नागरिक और गैर-नागरिक के बीच फर्क कौन और किस आधार पर करेगा?

यह सवाल नया नहीं है। बिहार में चल रही स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) प्रक्रिया के दौरान भी यही सवाल उठा था और आज भी उठा हुआ है। दावा किया गया कि SIR का मकसद घुसपैठियों को बाहर करना है, लेकिन चुनाव खत्म होने के बाद भी यह साफ नहीं हो पाया कि वास्तव में कितने ‘घुसपैठिए’ पकड़े गए। नतीजा सिर्फ एक रहा—डर। हर नागरिक के मन में यह आशंका भर दी गई कि कहीं उसे ही घुसपैठिया न घोषित कर दिया जाए।

कागज़ न होना अपराध है?

‘घुसपैठिया’ की पहचान के दो पहलू बताए जाते हैं। पहला, वह व्यक्ति जिसके पास पूरे कागज़ नहीं हैं। दूसरा, वह व्यक्ति जिसने वास्तव में अवैध रूप से देश में प्रवेश किया है। लेकिन भारत की हकीकत यह है कि लाखों-करोड़ों लोगों के पास अपने जन्म, जन्मस्थान या नागरिकता से जुड़े पूरे, ‘प्रमाणिक’ दस्तावेज़ नहीं हैं। अपने माता-पिता, दादा-दादी से पूछकर देखिए—क्या उनके पास हर वह कागज़ है जिसकी आज मांग की जा रही है?

कागज़ न होने का मतलब विदेशी होना नहीं है। और कागज़ होने के बाद भी संदेह खत्म नहीं होता। बार-बार कहा जा रहा है कि कोई भी दस्तावेज़ नकली बन सकता है। आधार कार्ड को भी ‘निराधार’ साबित करने की कोशिशें हुई हैं। जब आज़ादी के बाद से भारत सरकार ने कभी नागरिकता का कोई सर्वमान्य प्रमाण-पत्र जारी ही नहीं किया, तो नागरिकता का सत्यापन आखिर किस आधार पर होगा?

अनुभव बताते हैं ख़तरा

हरियाणा में बांग्ला बोलने वाले मुसलमानों को ‘बांग्लादेशी’ बताकर डिटेंशन सेंटर में डालने के मामले सामने आ चुके हैं। रोहिंग्या मुसलमान, जिनके पास संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी शरणार्थी कार्ड थे, उन्हें भी ‘घुसपैठिया’ कहकर समुद्र में धकेल दिया गया। यह सब दिखाता है कि भाषा, धर्म और पहचान के आधार पर कैसे लोगों को निशाना बनाया जा सकता है।

एक तरफ पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर को भारत में मिलाने की बात होती है, दूसरी तरफ देश के भीतर नागरिकों से कहा जा रहा है कि वे साबित करें कि वे भारतीय हैं। यह विरोधाभास नहीं तो क्या है?

योगी सरकार का आक्रामक अभियान

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ‘घुसपैठियों’ के खिलाफ अभियान के चैंपियन बनकर उभरना चाहते हैं। SIR की प्रक्रिया चलते हुए भी उन्होंने समानांतर रूप से अपने आदेश जारी कर दिए हैं। सभी नगर निकायों को निर्देश है कि वे अपने क्षेत्रों में ‘संदिग्ध विदेशी नागरिकों’ की सूची तैयार करें। हर मंडल में डिटेंशन सेंटर बनाए जा रहे हैं। खबर है कि पश्चिमी यूपी में देश का सबसे बड़ा डिटेंशन सेंटर बनाने की तैयारी है, जो तिहाड़ जेल से भी बड़ा होगा।

इतना ही नहीं, नागरिकों को भी इस अभियान का हिस्सा बना दिया गया है। मुख्यमंत्री ने प्रदेशवासियों के नाम एक चिट्ठी—‘योगी की पाती’—लिखी है, जिसमें लोगों से सतर्क रहने, आसपास नज़र रखने और काम पर रखने या मकान किराए पर देने से पहले सत्यापन करने की अपील की गई है। सत्यापन नियमों में पहले से है, लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि हर नागरिक दूसरे नागरिक को शक की निगाह से देखे और पुलिस को सूचना दे?

शक, नफ़रत और निजी दुश्मनी का खतरा

अगर यह माहौल बनाया गया कि हर मुसलमान, दलित या वंचित व्यक्ति संदिग्ध है, तो इसका नतीजा क्या होगा? पुलिस तंत्र तैयार है, डिटेंशन सेंटर बन ही रहे हैं। ऐसे में निजी दुश्मनी निकालने, झूठी शिकायतें करने का रास्ता भी खुल जाता है—जैसा SIR के दौरान नाम कटवाने में हुआ।

अगर किसी को एक-दो साल डिटेंशन सेंटर में रखने के बाद ‘भारतीय नागरिक’ साबित किया जाता है, तो उस मानसिक, सामाजिक और आर्थिक उत्पीड़न का मुआवज़ा कौन देगा?

मीडिया की चुप्पी और सरकार की नाकामियाँ

मुख्यधारा मीडिया इन सवालों पर चुप है। उलटे ‘डेली डिटेंशन, डिपोर्टेशन’ जैसी हेडलाइनों के साथ इस अभियान का जश्न मनाया जा रहा है। लेकिन ज़मीनी सवाल कोई नहीं पूछ रहा—

स्कूल बंद क्यों हो रहे हैं? अस्पताल बदहाल क्यों हैं? रोज़गार क्यों नहीं है? नौजवान सड़कों पर आंदोलन क्यों कर रहे हैं?

इन सब नाकामियों का ठीकरा ‘घुसपैठियों’ पर फोड़ा जा रहा है, ताकि सरकार को जवाबदेही से बचाया जा सके।

असली मकसद क्या है?

आज यूपी में अवैध घुसपैठियों के नाम पर एक तरह का युद्ध छेड़ दिया गया है, जिसकी शुरुआत गरीबों की झुग्गी-बस्तियों से हो चुकी है। पुलिस घर-घर जाकर सत्यापन फॉर्म और पहचान पत्र मांग रही है।

अगर वाकई इतनी बड़ी संख्या में घुसपैठिए हैं, तो इसकी जिम्मेदारी किसकी है? सबसे पहले केंद्रीय गृह मंत्रालय की, फिर राज्य सरकार की। क्या सिर्फ संदेह के आधार पर किसी समुदाय या किसी प्रदेश—खासकर बंगाल, असम या जम्मू-कश्मीर से आए मेहनतकश नागरिकों—को निशाना बनाया जा सकता है?

यह भी पूछा जाना चाहिए कि क्या 2027 के चुनाव तक हिंदू-मुस्लिम राजनीति को पूरी तरह गर्म रखने की यह एक सोची-समझी रणनीति है?

नए भारत में आपका स्वागत है

सरकार को जवाब देना होगा कि केंद्र में 11 साल और यूपी में 10 साल सत्ता में रहने के बावजूद अगर घुसपैठ इतनी बड़ी समस्या है, तो उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा?

और हां, नागरिकों से यही कहा जा रहा है—अपनी पहचान के कागज़ हमेशा तैयार रखिए। क्योंकि कभी भी, किसी की शिकायत पर, कोई भी अधिकारी आपके दरवाज़े पर आकर आपसे कह सकता है—साबित कीजिए कि आप भारतीय हैं।

नए भारत में आपका स्वागत है। मुस्कुराइए, आप यूपी में हैं।

मुकुल सरल

View all posts

ताजा खबर