November 22, 2025 12:34 am
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‘सभी हिंदू हैं’ के पुराने फ़ॉर्मूले की नई पैकेजिंग

बैंगलोर कॉन्क्लेव में मोहन भागवत ने ‘सब हिंदू हैं’ और ‘हिंदू सभ्यता’ का दावा दोहराया। इस भाषण के राजनीतिक अर्थ, विरोधाभास और आरएसएस एजेंडा का विस्तृत विश्लेषण।

जब सब हिंदू हैं तो लव जिहाद, धर्मांतरण की थ्योरी कहां से आई भागवत जी!

डिकोडिंग आरएसएस की श्रृंखला में आज हम बात कर रहे हैं आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के उस बयान की, जो उन्होंने बैंगलोर में आरएसएस के सौ वर्ष पूरे होने के अवसर पर आयोजित दो-दिवसीय कॉन्क्लेव में दिया। भाषण में उन्होंने अपनी कई पुरानी बातों को दोहराया और कुछ नए रूप में पेश करने की कोशिश की—मगर मूल विचार वही था: भारत में जो भी रहता है, वह “हिंदू” है।

‘हिंदू शब्द कोई धर्म नहीं, सब हिंदू हैं’—पुराने विचार की पुनरावृत्ति

भागवत ने फिर कहा कि “हिंदू नाम का कोई शब्द नहीं, यहां रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है।” यह उनका वही पुराना तर्क है जिसके तहत वे भारत में रहने वाले सभी लोगों को एक सांस्कृतिक रूप से “हिंदू” मानते हैं।
लेकिन वास्तविकता यह है कि सदियों के सामाजिक-धार्मिक विकास ने अलग-अलग धर्मों की स्वतंत्र पहचान बनाई है—मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन, आदिवासी परंपराएं—ये सभी अपनी संस्कृति, इतिहास और आध्यात्मिक परंपरा रखते हैं। ऐसे में यह कहना कि सब हिंदू हैं, एक भौगोलिक अवधारणा को धार्मिक पहचान पर थोपने जैसा है।

भारत की सभ्यता बहुस्तरीय है, न कि केवल ‘हिंदू सभ्यता’

भागवत ने कहा कि भारत की सभ्यता “हिंदू सभ्यता” है।
परंतु भारत की सभ्यता कभी एकरेखीय नहीं रही। यहाँ शक, हूण, ग्रीक, मुगल, तुर्क, अफ़ग़ान, ईरानी, अरबी तमाम संस्कृतियों का प्रभाव जुड़ता रहा।
किसी ने किसी को मिटाया नहीं—भारत की पहचान इसी मिश्रण, इसी विविधता, इसी बहुलता से बनी।

इसलिए भारतीय सभ्यता को किसी एक धर्म के नाम पर नहीं बांधा जा सकता। यह भारतीय सभ्यता है, जिसमें पूजा की पद्धतियाँ, जीवन शैली, खानपान, धर्म, दर्शन—सबकी अपनी स्वतंत्र जगह है।

‘शाखा में सभी का स्वागत’—लेकिन शाखा की संरचना ही एकधर्मी

भागवत कहते हैं कि शाखा में आने वाला हर व्यक्ति हिंदू बनकर आए तो उसका स्वागत है।
यहीं सबसे बड़ा विरोधाभास है—

  • शाखा में भगवा झंडा है, तिरंगा नहीं।
  • शाखा की प्रार्थना में हिंदू राष्ट्र का गुणगान है।
  • सारी गतिविधियाँ हिंदू सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर आधारित हैं।

तो फिर मुसलमान या ईसाई वहां क्यों और कैसे जाएंगे?
आरएसएस ने हमेशा ऐसे आंदोलनों को आगे बढ़ाया जो हिंदू पहचान को प्राथमिकता देते हैं, और अक्सर दूसरों को हाशिये पर डालते हैं।

लव जिहाद पर उनका अपना तर्क उन्हीं पर उल्टा पड़ता है

भागवत बार-बार कहते हैं कि यहां रहने वाले सभी हिंदू हैं।
अगर ऐसा है, तो फिर लव जिहाद कैसे हुआ?
अगर हिंदू लड़की और मुस्लिम लड़का “दो हिंदू” हैं (भागवत के अनुसार), तो फिर यह प्रेम विवाह कैसे “खतरा” हो गया?

सच यह है कि आरएसएस मुसलमान को मुसलमान ही मानता है, लेकिन प्रचार में कहता है कि सब हिंदू हैं। यह स्पष्ट विरोधाभास है।

मुसलमानों और ईसाइयों पर निशाना—अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष दोनों रूपों में

भागवत का पूरा भाषण इसी विचार के इर्द-गिर्द घूमता रहा कि मुसलमान और ईसाई भी स्वयं को हिंदू कहें।
पर क्या कोई भी समुदाय अपनी धार्मिक पहचान छोड़कर दूसरे धर्म का नाम स्वीकार कर सकता है?
यह संभव भी नहीं और लोकतांत्रिक भी नहीं।

ज़मीनी हकीकत यह है कि आज देश में मुसलमान और ईसाई खुद को दूसरे दर्जे का नागरिक महसूस करने लगे हैं।

  • गाय के नाम पर मॉब लिंचिंग
  • लव जिहाद के नाम पर हिंसा
  • मुसलमान बस्तियों का गेट्टोइज़ेशन
  • इतिहास में मुस्लिम शासकों के प्रति सुनियोजित नफरत
    ये सभी चीज़ें बताती हैं कि “सब हिंदू हैं” का दावा केवल एक राजनीतिक प्रोपेगेंडा है।

‘पूर्वज एक हैं’—पर क्या नागरिकता पूर्वजों से तय होती है?

भागवत फिर कहते हैं कि “सबका डीएनए एक है, पूर्वज एक हैं।”
पर भारत की नागरिकता समाजशास्त्र या जीवविज्ञान से नहीं,
बल्कि संविधान से तय होती है।
भागवत इसे धर्म से जोड़ते हैं—यह सीधा-सीधा संवैधानिक ढांचे का विरोध है।

आरएसएस का त्याग और बलिदान—सब ‘मनगढ़ंत’ दावे

भागवत दावा करते हैं कि “कई स्वयंसेवक त्याग करते हुए मारे गए।”
भारत की आज़ादी की लड़ाई में आरएसएस का कोई योगदान दर्ज नहीं है—

  • न वे ब्रिटिश विरोधी आंदोलनों में दिखे
  • न लाठी खाई
  • न जेल गए
  • न गोलियाँ खाईं

नाथूराम गोडसे की घटना के बाद कुछ ब्राह्मणों पर कार्रवाई हुई—पर उसे “स्वयंसेवकों के बलिदान” कहना इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश करना है।

भारत माता के हाथ में तिरंगा नहीं, भगवा—क्या यह संविधानसम्मत है?

बैंगलोर कॉन्क्लेव में भी भागवत जिस भारत माता की प्रतिमा पर फूल चढ़ा रहे थे, उसके हाथ में तिरंगा नहीं बल्कि भगवा झंडा था।
यह सीधा संदेश है कि उनका अंतिम लक्ष्य “हिंदू राष्ट्र” है, न कि संविधान द्वारा परिभाषित सिविल, धर्मनिरपेक्ष भारत

निष्कर्ष: पुराने एजेंडा को नए भाषा-रूप में बेचने की कोशिश

बैंगलोर का यह कॉन्क्लेव उसी श्रृंखला का हिस्सा है—
दिल्ली में हुआ, अब बैंगलोर, फिर कोलकाता, मुंबई…
हर जगह वही एजेंडा, वही संदेश, वही राष्ट्र की नई परिभाषा गढ़ने की कोशिश।

भागवत जानते हैं कि सीधे-सीधे हिंदू राष्ट्र कहने से लोग सतर्क हो जाते हैं, इसलिए वे “सब हिंदू हैं”, “पूर्वज एक हैं”, “डीएनए एक है”—जैसे वैज्ञानिकता के आवरण में ढके सांप्रदायिक विचार पेश करते हैं।

पर भारत का वर्तमान, भविष्य और पहचान संविधान से तय होगी—
आरएसएस के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से नहीं।

राम पुनियानी

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