November 22, 2025 12:47 am
Home » देशकाल » दीघा सीट से महागठबंधन की उम्मीदवार ने उड़ाई मोदी खेमे की नींद

दीघा सीट से महागठबंधन की उम्मीदवार ने उड़ाई मोदी खेमे की नींद

दीघा विधानसभा से भाकपा(माले) प्रत्याशी दिव्या गौतम की बातचीत— छात्र राजनीति से लेकर चुनाव प्रचार तक का सफर, सुशांत सिंह राजपूत से पारिवारिक रिश्ता, मीडिया पर सवाल और राजनीति में उम्मीद की नई कहानी।

“हिम्मत का नाम दिव्या गौतम”: भाकपा(माले) की युवा प्रत्याशी का सफ़र राजनीति से पहले एक संघर्ष की कहानी है

पटना की दीघा विधानसभा सीट पर इस बार चुनावी हवा में एक अलग ही उत्साह था। पोस्टरों, नारों और रैलियों के बीच एक साइकिल पर सवार महिला प्रत्याशी सबका ध्यान खींच रही थी — दिव्या गौतम। वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) यानी भाकपा(माले) से महागठबंधन की उम्मीदवार हैं। लेकिन दिव्या की पहचान सिर्फ एक राजनीतिक प्रत्याशी की नहीं है — वे उस मध्यवर्गीय संघर्ष, वैचारिक प्रतिबद्धता और नारी-साहस की मिसाल हैं जो बिहार की राजनीति में दुर्लभ है।

“चुनाव से डर नहीं लगता, लेकिन खर्च देखकर कभी लगता था ये सब हमारे लिए नहीं”

दिव्या मुस्कराती हैं जब उनसे पूछा जाता है कि क्या उन्होंने कभी सोचा था कि वे विधानसभा चुनाव लड़ेंगी।
“कभी नहीं सोचा था,” वे कहती हैं, “लेकिन लगता था कि ज़िंदगी में कभी तो चुनाव लड़ना है। छात्र राजनीति से जो जुड़ाव हुआ, वही धीरे-धीरे एक जिम्मेदारी बन गया।”

वे बताती हैं कि जब वे पटना विश्वविद्यालय में छात्रसंघ चुनाव लड़ीं, तो पिता बहुत चिंतित थे — “वो कहते थे कि वहाँ तो बाहुबली हैं, गुंडे हैं, तुम कैसे लड़ोगी? लेकिन मैंने अपनी बात पर डटी रही।”

राजनीति में उतरने की उनकी प्रेरणा वैचारिक थी। “मैंने भगत सिंह, अंबेडकर, सावित्रीबाई फुले और जोतिबा फुले को पढ़ा। कम्युनिस्ट राजनीति को समझा और पाया कि यही मेरे विचारों के सबसे करीब है,” वे बताती हैं।

“लोगों की तकलीफ़ें सुनना ज़रूरी है, बोलने से ज़्यादा सुनने की राजनीति होनी चाहिए”

अपने प्रचार के अनुभवों पर दिव्या कहती हैं कि दीघा के लोगों से मिलकर उन्होंने सीखा कि समाज को समझने के लिए सिर्फ बोलना नहीं, सुनना भी ज़रूरी है।
“जब आप अलग-अलग तबके के लोगों के बीच जाती हैं — वर्ग और जाति की सीमाओं के पार — तो समझ आती है कि सबकी परेशानियाँ एक जैसी हैं: सड़कें टूटी हैं, नालियाँ भरी हैं, रोज़गार नहीं है। यही ‘कॉमन मिनिमम’ चीज़ें हैं, जिन पर सबका हक़ है।”

“सुशांत मेरे भाई थे, लेकिन मीडिया ने जो किया, वो लिंचिंग थी”

दिव्या का नाम जब उम्मीदवार घोषित हुआ, तो एक और पहचान मीडिया ने सबसे पहले उछाली — वे दिवंगत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की चचेरी बहन हैं।
इस सवाल पर दिव्या के चेहरे की मुस्कराहट गंभीरता में बदल जाती है।

“किसी के भी जीवन में ऐसा होता है, तो बुरा लगता है,” वे कहती हैं, “लेकिन उसके बाद जो मीडिया ने किया, वो सबसे ज़्यादा दुखद था। वो लिंचिंग थी। मीडिया को उन दिनों के लिए माफ़ी माँगनी चाहिए।”

वो बताती हैं कि 2020 में, जब सुशांत की मृत्यु हुई, तो वे खुद पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही थीं — “मैं टीवी पर अपना ही चेहरा देखती थी, ज़ूम करके। मैं बस रोती थी। जिस इंसान के साथ इतनी निजी बात हुई हो, उसे सार्वजनिक तमाशा बना देना… ये सिर्फ़ असंवेदनशीलता नहीं, हिंसा थी।”

दिव्या की आवाज़ धीमी पड़ती है, “मेरी माँ 2017 में गुजर गई थीं। फिर 2020 में ये हादसा हुआ। अब भी जब लोग पूछते हैं, तो दर्द लौट आता है। लेकिन मैं चाहती हूँ कि सुशांत को उनकी मेहनत और हिम्मत के लिए याद किया जाए। उन्होंने दिखाया कि एक मिडिल क्लास इंसान भी बड़े सपने पूरे कर सकता है। और यही उनकी सबसे बड़ी प्रेरणा है मेरे लिए।”

“अगर मेरे पास पैसे नहीं हैं, तो भी हिम्मत है — और वही सबसे बड़ा संसाधन है”

दिव्या का प्रचार अनोखा रहा — साइकिल से मोहल्लों में जाना, घर-घर जाकर बात करना, और हर तबके से संवाद।
एक स्थानीय नागरिक बताते हैं, “जब इमरान प्रतापगढ़ी का रोड शो था, तो दिव्या वहीं खड़ी थीं। उन्होंने कहा था — ‘मैंने संकल्प लिया है कि चुनाव लड़ूंगी।’ आज भी वे साइकिल पर हैं, गाड़ियों के साथ-साथ।”

दिव्या कहती हैं, “लोग सोचते हैं कि बिना पैसे के राजनीति नहीं हो सकती। लेकिन सुशांत के पास भी तो कौन से संसाधन थे? उनके पास सिर्फ़ हिम्मत और मेहनत थी। मुझे भी वही रास्ता ठीक लगता है।”

“राजनीति सिर्फ़ सत्ता का रास्ता नहीं, समाज को सुनने का ज़रिया है”

दिव्या की उम्मीदवारी इस चुनाव में महज एक राजनीतिक घटना नहीं, बल्कि एक सामाजिक संकेत भी है — कि बिहार की राजनीति में अब भी वैचारिक ईमानदारी और संवेदनशीलता की जगह बाकी है।

भाकपा(माले) की यह युवा उम्मीदवार अपने भाषणों और साफ़ सोच की वजह से चर्चा में हैं। वे बताती हैं, “मेरे लिए यह चुनाव लड़ाई है उस विचार के लिए जो कहता है कि राजनीति आम लोगों की ज़िम्मेदारी है, सिर्फ़ अमीरों का खेल नहीं।”

निष्कर्ष: उम्मीद की एक साइकिल

दिव्या गौतम की कहानी उस साइकिल की तरह है, जिस पर वे चुनाव प्रचार करती हैं — धीरे-धीरे लेकिन दृढ़ता से आगे बढ़ती हुई।
अगर वे विधानसभा तक पहुँचती हैं, तो यह सिर्फ़ एक महिला प्रत्याशी की जीत नहीं होगी, बल्कि उस उम्मीद की जीत होगी जो कहती है कि राजनीति में भी संवेदनशीलता और साहस की जगह है।

भाषा सिंह

1971 में दिल्ली में जन्मी, शिक्षा लखनऊ में प्राप्त की। 1996 से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।
'अमर उजाला', 'नवभारत टाइम्स', 'आउटलुक', 'नई दुनिया', 'नेशनल हेराल्ड', 'न्यूज़क्लिक' जैसे
प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों

Read more
View all posts

ताजा खबर