October 28, 2025 7:17 pm
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रील का खेल और बिहार की रीयल पॉलिटिक्स

भाकपा माले महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने बिहार चुनाव में मोदी-शाह की ‘रील पॉलिटिक्स’ और नीतीश कुमार को किनारे करने की रणनीति का खुलासा किया। जानिए कैसे अडानी फैक्टर, बेरोजगारी और रेलवे की बदहाली इस चुनाव के असली मुद्दे बन रहे हैं।

क्या मोदी-शाह नीतीश को फिनिश करने के मिशन पर हैं?

बिहार की चुनावी हवा में इन दिनों एक नया नारा गूंज रहा है — “रील खेलो, रील खेलो, रील खेलो”। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह ‘रील’ वाला अभियान सिर्फ नौजवानों की ‘क्रिएटिविटी’ की तारीफ नहीं है, बल्कि उसके पीछे एक गहरी राजनीतिक पटकथा छिपी है। यह पटकथा न सिर्फ रोजगार की हकीकत पर पर्दा डालती है, बल्कि बिहार की राजनीति में पुराने साथी नितीश कुमार को किनारे लगाने की कहानी भी कहती है।

डुमरांव सीट पर ‘अडानी के वकील’ की एंट्री

भाकपा (माले) के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने बिहार के डुमरांव विधानसभा में अपने भाषण में खुलकर कहा कि यहां का चुनाव मैदान दरअसल नीतीश कुमार को ‘फिनिश’ करने का प्रयोगशाला बन गया है। उन्होंने खुलासा किया कि जनता दल (यू) की टिकट पर जिस उम्मीदवार को उतारा गया है, वह असल में अडानी समूह के वकील हैं। दिलचस्प यह है कि इस उम्मीदवार के नाम से खुद जदयू के स्थानीय कार्यकर्ता भी अनजान थे।
दीपांकर ने यह भी बताया कि जिस व्यक्ति को ‘पैराशूट’ से उतारा गया है, उसका सीधा रिश्ता दिल्ली के एक केंद्रीय मंत्री के परिवार से है। यानी, बिहार की सीटों पर दिल्ली के कॉर्पोरेट और सियासी नेटवर्क की सीधी घुसपैठ।

रील वाला रोजगार और नौजवानों की नाराज़गी

मोदी जी ने बेगूसराय की रैली में कहा कि बिहार के नौजवान मोबाइल डेटा से रील बनाकर ‘रोजगार’ पा रहे हैं — और यह भी बीजेपी की देन है। लेकिन बिहार के नौजवानों को यह तंज जैसा लगा।
जो युवा पढ़ाई-लिखाई के बाद नौकरी की तलाश में हैं, उन्हें रीलमेकिंग में उलझाने का यह बयान उनकी मेहनत और संघर्ष का मज़ाक बन गया।
बीजेपी के लिए यह “डिजिटल डेवलपमेंट” हो सकता है, लेकिन युवाओं के लिए यह “बेरोजगारी का मज़ाक” है।

रेल नहीं, ‘रील’ मंत्री

रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने दावा किया था कि इस बार 12,000 ट्रेनों से बिहार के यात्रियों को राहत मिलेगी। लेकिन छठ पूजा के मौके पर ट्रेनें अब भी भीड़ से ठसाठस हैं। इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार दीप्तिमान तिवारी की रिपोर्ट ने दिखाया कि जमीनी सच्चाई कितनी अलग है — बिहार के मजदूर अब भी छठ पर घर लौटने के लिए प्लेटफॉर्मों पर लदे-फदे सफर कर रहे हैं।
यानी, रील में दिखाया गया विकास अब भी सिर्फ स्क्रीन पर है — पटरी पर नहीं।

बिहार में ‘महाराष्ट्र मॉडल’?

दीपांकर भट्टाचार्य का आरोप है कि बीजेपी बिहार में महाराष्ट्र मॉडल दोहराना चाहती है — यानी पहले सहयोगी दल को कमजोर करो, फिर उसकी ही ज़मीन पर सरकार बना लो।
महाराष्ट्र में बीजेपी ने शिवसेना और एनसीपी को तोड़कर सत्ता हथियाई थी; अब बिहार में वही प्रयोग नितीश कुमार की जदयू के साथ दिख रहा है।

याद रहे — उत्तर भारत में बिहार ही एकमात्र राज्य है जहाँ बीजेपी अपने दम पर सरकार नहीं बना पाई। हर बार उसे जदयू की “पूंछ” पकड़नी पड़ी है। यही वजह है कि अब उसे नितीश को खत्म करना “स्ट्रैटेजिक मिशन” लग रहा है।

तेजस्वी यादव का सवाल: बिहार को क्या मिला?

विपक्षी नेता तेजस्वी यादव ने भी बेबाक सवाल उठाए —

“प्रधनमंत्री जी, आप 11 साल से प्रधानमंत्री हैं, बिहार को आपने क्या दिया? फैक्टरियां गुजरात में लगती हैं, बुलेट ट्रेन गुजरात में चलती है, और बिहार के हिस्से में सिर्फ वादे आते हैं।”

तेजस्वी की यह बात बिहार के गांवों, खासकर गरीब तबके की महिलाओं के बीच गूंज रही है, जो कह रही हैं — “हम भी फैक्ट्री चाहते हैं, काम चाहते हैं, इज़्ज़त से रोटी कमाना चाहते हैं।”

अडानी फैक्टर और ज़मीन की राजनीति

भागलपुर में 1000 एकड़ उपजाऊ जमीन अडानी समूह को सिर्फ ₹33 रुपये सालाना किराए पर 33 साल के लिए दी गई है।
यह सौदा बिहार में कॉर्पोरेट कब्जे की उस कहानी को और भी स्पष्ट करता है, जिसमें जनता की जमीन ‘विकास’ के नाम पर सौंप दी जाती है।
दिपांकर भट्टाचार्य और माले उम्मीदवार अजीत कुशवाहा ने इसे चुनावी मुद्दा बनाया है — और यही कारण है कि डुमराऊं अब बिहार की राजनीति का प्रतीक बन चुका है।

मोदी-शाह की चाल और नीतीश की मुश्किल

गृह मंत्री अमित शाह ने सीवान में अपने भाषण में जिस तरह से एक समुदाय को निशाना बनाया, वह बताता है कि बीजेपी का असली एजेंडा क्या है — ध्रुवीकरण
दूसरी तरफ, प्रशांत किशोर के उम्मीदवारों को ‘मना’ लेना, माले प्रत्याशियों पर केस लगाना, और विपक्षी उम्मीदवारों को जेल भेज देना — यह सब इस चुनाव में सत्ता के इस्तेमाल की झलक दिखाते हैं।

बिहार की असली रील

बिहार की असली रील यह है — बेरोजगारी, पलायन, अधूरी ट्रेनों में सफर, और सत्ता का खेल।
मोदी जी का ‘रील गेम’ शायद सोशल मीडिया पर ट्रेंड करे, लेकिन जमीनी बिहार में लोगों का मूड कुछ और कह रहा है —
“हम रील नहीं, रीयल रोजगार चाहते हैं।”

भाषा सिंह

1971 में दिल्ली में जन्मी, शिक्षा लखनऊ में प्राप्त की। 1996 से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।
'अमर उजाला', 'नवभारत टाइम्स', 'आउटलुक', 'नई दुनिया', 'नेशनल हेराल्ड', 'न्यूज़क्लिक' जैसे
प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों

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