भारत के लोकपाल को चाहिए शाही सवारी, सात कारों के दिये ऑर्डर
भारत के लोकपाल ऑफ इंडिया ने अपने लिए और अपने छह सदस्यों के लिए BMW कारें खरीदने की मांग की है। हर गाड़ी की शुरुआती कीमत लगभग 70 लाख रुपये है। यानी कुल मिलाकर करीब 5 करोड़ रुपये की शाही सवारी। सवाल उठता है—क्या भ्रष्टाचार रोकने के लिए अब BMW ज़रूरी हो गई है?
लोकपाल: आंदोलन से लेकर मौन तक
याद कीजिए 2012-13 का अन्ना आंदोलन, जब पूरा देश ‘जन लोकपाल’ की मांग पर सड़कों पर उतर आया था। उस समय कहा गया था कि अगर लोकपाल नहीं बना तो देश का कामकाज ठप हो जाएगा, भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच जाएगा। उस आंदोलन ने मनमोहन सिंह सरकार को हिला दिया और अंततः मोडी सरकार सत्ता में आई।
लेकिन क्या उस लोकपाल से देश में ईमानदारी आई?
क्या भ्रष्टाचार रुका?
क्या किसी बड़े नेता की जांच हुई?
इन सवालों के जवाब में सन्नाटा है।
BMW की मांग और टेंडर नोटिस
लोकपाल कार्यालय की ओर से 16 अक्टूबर को एक नोटिफिकेशन जारी हुआ जिसमें सात BMW कारों की खरीद के लिए टेंडर निकाला गया। इन कारों का उपयोग लोकपाल के चेयरपर्सन और छह सदस्यों के लिए होना है।
लोकपाल के मौजूदा चेयरपर्सन हैं जस्टिस ए.एम. खानविलकर।
सदस्य हैं —
- जस्टिस एल. एन. स्वामी
- जस्टिस संजय यादव
- जस्टिस आर. आर. अवस्थी
- सुशील चंद्रा
- पंकज कुमार
- अजय तिर्के
टेंडर में यह भी लिखा गया है कि BMW कंपनी के ट्रेनर ड्राइवरों को सात दिन की ट्रेनिंग देगी, ताकि वे इन लक्ज़री कारों को चला सकें।
लोकपाल की उपलब्धियां और सवाल
2019 में पहला लोकपाल नियुक्त हुआ — जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष, जिन्होंने मई 2022 तक काम किया।
इसके बाद मार्च 2024 में जस्टिस खानविलकर ने पदभार संभाला।
अब तक, लोकपाल ने केवल 34 मामलों में जांच के आदेश दिए हैं, जिनमें से सिर्फ 24 मामलों में जांच पूरी हुई। और जिन मामलों पर कार्रवाई हुई, उनमें से एक नाम है—महुआ मोइत्रा।
कांग्रेस नेताओं और वरिष्ठ वकीलों ने इस पर सवाल उठाए हैं कि जब सुप्रीम कोर्ट के जज पहले से SUV में चलते हैं, तो लोकपाल को BMW की क्या जरूरत है?
भ्रष्टाचार पर लगाम या दिखावा?
एक समय लोकपाल को ईमानदारी का प्रतीक बताया गया था, लेकिन अब वही संस्था शाही गाड़ियों के लिए चर्चा में है।
राज्यों में लोकायुक्त पहले ही निष्क्रिय हो चुके हैं, और अब केंद्र का लोकपाल भी जनता की नज़रों से ओझल है।
आज भ्रष्टाचार की चिंता किसी को नहीं है क्योंकि जो भी “भ्रष्ट” था, वह बीजेपी की वॉशिंग मशीन से होकर “इमानदार” बन जाता है। तो फिर लोकपाल की क्या जरूरत? शायद सिर्फ विपक्षी नेताओं को ठिकाने लगाने के लिए।
निष्कर्ष: आंदोलन की विरासत पर व्यंग्य
अन्ना आंदोलन के दौरान जो नारे लगते थे, वही अब व्यंग्य में लौट रहे हैं।
भ्रष्टाचार से लड़ने का दावा करने वाले अब लक्ज़री कारों में ईमानदारी की मिसालें पेश कर रहे हैं।
और जो लोग तब आंदोलन के चेहरे थे — अन्ना हज़ारे और बाबा रामदेव — वे अब इस शाही चुप्पी में शामिल हैं।
शायद अब समय है कि उन्हें ‘भारत रत्न’ दिया जाए —
क्योंकि उन्होंने भ्रष्टाचार के मामले में “बड़ी ईमानदारी से बेईमानी पर चुप्पी साध ली है।”
