बिहार चुनाव में ‘डुप्लिकेट विकास’ की कहानी: पीएम रैली से पहले सड़कों की डेंटिंग-पेंटिंग
मैं इस समय आरा के मज़वरा इलाके में खड़ी हूँ — ठीक वहीं से लगभग एक किलोमीटर दूर, जहाँ अगले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुनावी रैली होने वाली है। आसमान में हेलिकॉप्टर उतरने की तैयारी है, ज़मीन पर धूल और कीचड़ के बीच सड़कें बनाई जा रही हैं। और यही तस्वीर बिहार के विकास की सबसे सटीक झलक है — चुनावी रैली से ठीक पहले चमकाने वाला, दिखाने वाला, डुप्लिकेट विकास।
प्रधानमंत्री की रैली के लिए आरा के इस इलाके में जिस तेज़ी से निर्माण और सफ़ाई का काम चल रहा है, वह किसी चमत्कार से कम नहीं दिखता। जहां महीनों से सड़कें टूटी पड़ी थीं, वहाँ रातों-रात गड्ढे भर दिए गए हैं। हेलीपैड बनाने के लिए करोड़ों रुपये खर्च हो रहे हैं। बताया जा रहा है कि इस इलाके को चमकाने में 20 करोड़ रुपये से ज़्यादा का खर्च किया गया है। लेकिन जब प्रधानमंत्री का काफ़िला चला जाएगा, तब क्या ये सड़कें रहेंगी? या फिर यह विकास भी बिहार के पुलों की तरह कुछ ही दिनों में ढह जाएगा?
विकास की सच्चाई बनाम प्रचार की सजावट
बिहार में चुनावी प्रचार के साथ “विकास” शब्द फिर से सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है। पर ज़मीनी हकीकत यह है कि यह विकास हर बार नेताओं की रैली तक सीमित रह जाता है। सड़कें, बिजली, पानी — सब कुछ तभी सुधरता है जब कोई बड़ा नेता आने वाला होता है।
हमने जब इस इलाके में लोगों से बात की, तो जवाब साफ़ था —
“सड़कें नहीं बनीं, घरों की हालत खराब है, और जो काम हो रहा है, वो बस रैली के लिए हो रहा है।”
यानी जनता का असली मुद्दा वही है — जीवन की बुनियादी सुविधाएँ, जिन पर कोई चुनावी रैली नहीं बनती।
भीड़ का गणित और सत्ता का चेहरा
यह रैली ऐसे समय में हो रही है जब पिछली दो रैलियों में प्रधानमंत्री मोदी की सभाओं में भीड़ कम होने की चर्चा रही। NDA खेमे में बेचैनी है, और इस बार किसी भी हालत में तस्वीरें “भव्य” और “भरी हुई” दिखनी चाहिए। इसीलिए ज़ोर केवल मंच पर और रास्तों पर नहीं, बल्कि कैमरे पर भी है — ताकि टीवी स्क्रीन पर “विकसित बिहार” का दृश्य उभरे।
लोगों से बातचीत में यह भी साफ़ झलकता है कि बिहार में 20 साल के “विकास” और 20 साल पहले के “जंगलराज” की तुलना ही चुनावी विमर्श का केंद्र है। लेकिन बीजेपी समर्थक भी मानते हैं कि इस चुनाव में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सिर्फ़ एक मुखौटा हैं। सत्ता की असली डोर बीजेपी के हाथ में है।
वोटर की आवाज़: बदलाव की चाह या बेबसी
गाँव के लोगों से बात करते हुए यह साफ़ दिखता है कि उनके मुद्दे, उनके जीवन, उनके संघर्ष, इस “विकास शो” से कोसों दूर हैं।
किसी ने कहा —
“हम अकेले वोट डालते हैं, लेकिन कोई काम नहीं होता।”
किसी ने कहा —
“बदलाव चाहिए, पर भरोसा नहीं है कि कुछ बदलेगा।”
यह वही मनोदशा है जो बिहार के हर चुनाव में दिखती है — उम्मीद और निराशा के बीच झूलता हुआ वोटर।
मीडिया की चुप्पी और विकास की सजावट
जब मीडिया कवरेज की बात आती है, तो तस्वीरें बदल जाती हैं। रैली के दिन टीवी पर सिर्फ़ चमकते स्टेज, हेलीपैड पर उतरते हेलिकॉप्टर और मंच पर खड़े नेताओं की तस्वीरें दिखाई देती हैं। पर कोई नहीं दिखाता कि उन तस्वीरों के पीछे कितनी टूटी सड़कें, कितनी झोपड़ियाँ, कितनी रातों की मजदूरी और कितनी झूठी उम्मीदें छिपी हैं।
बिहार में जो भी विकास दिखता है, वह कैमरे के फ्रेम में फिट करने के लिए बनाया गया है। और जैसे ही कैमरा हटता है, सड़कें गायब, रोशनी बुझ जाती है।
निष्कर्ष
मज़वरा से यह रिपोर्ट बिहार के उस चेहरे को दिखाती है जिसे ‘डिजिटल इंडिया’ और ‘विकसित बिहार’ की चमक में अक्सर भुला दिया जाता है। यहाँ विकास की परिभाषा सिर्फ़ प्रधानमंत्री की रैली तक सीमित है — जहाँ हेलिकॉप्टर के उतरने के लिए सड़क बनती है, लेकिन जनता के चलने के लिए नहीं।
बिहार का यह ‘डुप्लिकेट विकास’ बताता है कि चुनाव के मौसम में सच्चाई की सबसे बड़ी दुश्मन होती है — सजावट।
