November 22, 2025 12:18 am
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तेजस्वी का ‘प्रण’ बनाम मोदी की ‘रील’

बिहार चुनाव 2025 में तेजस्वी यादव ने ‘तेजस्वी प्रण’ के ज़रिए बिहारी बनाम बाहरी का कार्ड खेला है। क्या यह बिहार की अस्मिता और रोजगार की नई राजनीति बनेगा या मोदी की ‘रील इकॉनमी’ हावी रहेगी?

बिहार चुनाव में अस्मिता, नौकरी और बिहारी कार्ड की लड़ाई

बिहार में इस बार की चुनावी हवा सिर्फ वादों या पोस्टरों से नहीं बन रही, बल्कि पहचान और अस्मिता के सवालों से बन रही है। विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की ओर से जारी घोषणा पत्र — ‘तेजस्वी प्रण’ — ने बिहार की राजनीति में एक नया मोड़ ला दिया है।
तेजस्वी यादव ने इस मैनिफेस्टो के ज़रिए साफ कहा है कि यह चुनाव बिहारी बनाम गैर-बिहारी के बीच की लड़ाई है — यानी यह लड़ाई सिर्फ सत्ता की नहीं, बल्कि अस्मिता की है।

‘तेजस्वी प्रण’ बनाम ‘रील इकोनॉमी’

तेजस्वी यादव का एजेंडा तीन शब्दों में सिमटता है — नौकरी, विकास, बिहार
वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में युवाओं को ‘रील बनाओ, पैसे कमाओ’ का मंत्र दिया था। यानी एक तरफ बेरोज़गारी का ठोस समाधान मांगते नौजवान हैं, दूसरी तरफ डिजिटल जुमलों की चमक।
तेजस्वी का दावा है कि बिहार को अब दिल्ली या गुजरात की नीतियों से नहीं, अपने बिहारी नौजवानों की आकांक्षाओं से चलना चाहिए।

यह टकराव सीधा-सीधा दो विज़नों का प्रतीक बन गया है —

  • एक तरफ तेजस्वी का रोजगार-आधारित विज़न,
  • दूसरी तरफ मोडी का रील-आधारित नैरेटिव

महिलाओं का वोट बैंक और ‘कैश ट्रांसफर’ की राजनीति

बिहार की राजनीति में महिलाएं हमेशा निर्णायक रही हैं।
नीतीश कुमार को लंबे समय तक “महिलाओं का वोट बैंक” कहा गया। लेकिन इस बार तस्वीर बदलती दिख रही है।
चुनाव से पहले एक करोड़ इक्कीस लाख महिलाओं के बैंक खातों में दस-दस हजार रुपये भेजे गए। सवाल यह है — क्या यह मदद थी या चुनावी रिश्वत?

दरअसल, बिहार की औरतें अब खुलकर कह रही हैं कि उन्हें कर्ज़ में डुबोकर मार डाला गया है
शबनम हाशमी और कई सामाजिक कार्यकर्ताओं की रिपोर्ट बताती है कि एक करोड़ नौ लाख से ज़्यादा महिलाओं पर 7000 करोड़ रुपये से अधिक का कर्ज़ है
यानी सशक्तिकरण की जगह, उन्हें ऋणजाल में फँसाया गया है।

बिहारी बनाम गुजराती: विकास या उपनिवेशवाद का सवाल

तेजस्वी का ‘बिहारी कार्ड’ यहीं से राजनीतिक बनता है।
उन्होंने साफ कहा है कि कुछ ‘बाहरी शक्तियां’ बिहार को औपनिवेशिक प्रयोगशाला बना देना चाहती हैं।
उनका निशाना सीधा केंद्र सरकार और गुजरात मॉडल की राजनीति पर है।

तेजस्वी ने यह भी याद दिलाया कि जब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह बिहार की धरती से यह कहते हैं कि “यहां उद्योग के लिए ज़मीन नहीं है”, तो यह बिहार का सम्मान नहीं, अपमान है।
और यही वह बिहार है जहां अडानी समूह को भागलपुर में 1050 एकड़ ज़मीन मात्र एक रुपये में 33 साल के लिए दी गई।
यानी एक गुजराती द्वारा दूसरे गुजराती को गिफ्ट, और बिहार के हिस्से में सिर्फ वादे।

प्रशांत किशोर और तीसरा विकल्प

चुनाव के मैदान में जन सुराज पार्टी के नेता प्रशांत किशोर (PK) भी हैं, जो खुद को ‘विकल्प’ के तौर पर पेश कर रहे हैं।
लेकिन उन पर भी सवाल उठ रहे हैं — क्या वे सच में बीजेपी के आलोचक हैं या पर्दे के पीछे बीजेपी के रणनीतिक सहयोगी?
चुनाव आयोग का उन्हें दो राज्यों की वोटर लिस्ट में नाम होने पर नोटिस भेजना भी बहस का हिस्सा बन गया है।

चुनाव आयोग, वोटर डिलीशन और बिहार की जनता

बेबाक भाषा की लगातार कवरेज में यह मुद्दा भी सामने आया कि बिहार में 80 लाख वोटर लिस्ट से नाम गायब हो गए
चुनाव आयोग के अनुसार यह ‘सुधार प्रक्रिया’ है, लेकिन विपक्ष इसे मतदाता दमन बता रहा है।
सवाल यह है कि क्या बिहार के मतदाताओं को चुनाओं से ठीक पहले ऐसे झटके देना लोकतंत्र के साथ छल नहीं?

रील की रोशनी में बुझती हकीकत

प्रधानमंत्री मोदी जब बेगूसराय में भीड़ से मोबाइल की टॉर्च जलवाते हैं, तो वह प्रतीक बन जाती है — सूरज की रोशनी में टॉर्च की लौ जलाना
युवा रील बना रहे हैं, लेकिन नौकरियाँ अब भी अदृश्य हैं।
तेजस्वी यादव का ‘नौकरी कार्ड’ इसी खालीपन को भरने की कोशिश है।
लेकिन क्या यह संकल्प (‘प्रण’) वोट में बदलेगा, यह बिहार की जनता तय करेगी।

अंतिम सवाल: बिहार को क्या चाहिए?

बिहार के ग़रीब, मज़दूर, किसान, महिलाएं और नौजवान — सब एक ही सवाल पूछ रहे हैं:
क्या बिहार को फिर एक ‘जुमला मॉडल’ चाहिए या एक ‘रोज़गार मॉडल’?
क्या बिहार अपने स्वाभिमान की लड़ाई लड़ेगा या फिर ‘रील’ और ‘राशन कार्ड’ के बीच उलझा रहेगा?

तेजस्वी का ‘प्रण’ बिहार की राजनीति में अस्मिता का कार्ड है,
मोडी का ‘रील मॉडल’ उस अस्मिता पर चमकती स्क्रीन का जाल।
अब फैसला बिहारी जनता के हाथ में है — कि उन्हें कौन-सा बिहार चाहिए?

भाषा सिंह

1971 में दिल्ली में जन्मी, शिक्षा लखनऊ में प्राप्त की। 1996 से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।
'अमर उजाला', 'नवभारत टाइम्स', 'आउटलुक', 'नई दुनिया', 'नेशनल हेराल्ड', 'न्यूज़क्लिक' जैसे
प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों

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