ट्रंप से ठुकराए जाने के बाद चीन संग नजदीकी
भारत की विदेश नीति इन दिनों लगातार पलटी खा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जो कल तक चीन को “लाल आंखें” दिखाने और “बायकॉट चाइना” के नारे दे रहे थे, अब उसी चीन की शरण में जाते दिख रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा भारतीय सामानों पर 25% टैरिफ लगाने के फैसले और बढ़ते आर्थिक दबाव ने मोदी सरकार को एक नए कूटनीतिक समीकरण की ओर धकेल दिया है। सवाल यह है कि क्या यह रणनीति भारत की दीर्घकालिक सुरक्षा और हितों के अनुरूप है, या फिर यह केवल एक मजबूरी का कदम है?
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: “भारत-चीन भाई-भाई” से 1962 तक
1950 के दशक में “भारत-चीन भाई-भाई” का नारा पंडित नेहरू की विदेश नीति की धुरी था। लेकिन 1962 का युद्ध इस नीति की सबसे बड़ी विफलता साबित हुआ। उसके बाद भारत ने चीन को लेकर सतर्क और सख्त रुख अपनाया।
मोदी सरकार का मौजूदा रुख कई मायनों में 1950 के उस दौर की याद दिलाता है, जब चीन को मित्र और साझेदार के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा था। फर्क सिर्फ इतना है कि आज की परिस्थितियाँ कहीं अधिक जटिल हैं—भारत चीन से व्यापार पर निर्भर है, वहीं सीमा विवाद, डोकलाम और गलवान जैसी घटनाएँ भारत की सुरक्षा चिंताओं को गहराती हैं।
ट्रंप का टैरिफ झटका और भारत की चुप्पी
डोनाल्ड ट्रंप ने 1 अगस्त से भारतीय सामानों पर 25% टैरिफ लागू करने की घोषणा की। इससे भारत की दवा, कपड़ा और आईटी सेवाओं जैसी प्रमुख निर्यात उद्योगों को बड़ा झटका लगा।
दिलचस्प यह है कि मोदी सरकार ने इस पर सीधी प्रतिक्रिया देने के बजाय चुप्पी साधी और अब बीजिंग की ओर झुकाव दिखा रही है।
चीन के राजदूत ने खुलेआम कहा कि “भारत को अमेरिकी बुली पॉलिटिक्स से डरने की जरूरत नहीं।” यह बयान उस समय आया है जब अमेरिका भारत को वैश्विक मंच पर सहयोगी मानने की बजाय व्यापारिक दबाव का औजार बना रहा है।
आर्थिक मजबूरी और कॉर्पोरेट दबाव
भारत का चीन के साथ व्यापारिक घाटा 2024-25 में 115 अरब डॉलर तक पहुँच चुका है।
- चीन भारत का सबसे बड़ा आयातक देश है—खासकर इलेक्ट्रॉनिक्स, औद्योगिक पुर्जे और केमिकल्स में।
- अंबानी और अडानी जैसे बड़े कारोबारी घरानों की कंपनियाँ चीन से सस्ती सप्लाई और निवेश पर निर्भर हैं।
विश्लेषकों का मानना है कि मोदी सरकार की “चीन से दूरी” की नीति असल में व्यवहारिक नहीं है, क्योंकि घरेलू उद्योग को चीन के बिना चलाना असंभव है। यही कारण है कि राजनीतिक स्तर पर चाहे चीन-विरोधी नारे दिए जाएं, आर्थिक स्तर पर नजदीकी बनाए रखना मजबूरी है।
भक्तों के लिए असहज स्थिति
मोदी समर्थकों को इस पलटी ने उलझन में डाल दिया है। कल तक जो “चीनी सामान का बहिष्कार” कर रहे थे, आज उन्हें सरकार की चीन-प्रेम नीति का बचाव करना पड़ रहा है। यही कारण है कि सोशल मीडिया पर सवाल उठ रहे हैं—
- “क्या मेक-इन-इंडिया अब चीनी माल पर टिका है?”
- “क्या मोदी सरकार ने नेहरू की विदेश नीति की नक़ल शुरू कर दी?”
मीडिया की भूमिका: पलटी मार पत्रकारिता
मुख्यधारा मीडिया के बड़े हिस्से ने इस बदलाव को “मोदी की धांसू डिप्लोमेसी” बताकर पेश किया। कुछ पत्रकार तो यह दावा तक कर बैठे कि चीन अब पाकिस्तान को सबक सिखा रहा है और भारत के पक्ष में खुलकर खड़ा है।
लेकिन यह दावा तथ्यात्मक रूप से गलत है, क्योंकि चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (CPEC) और बेल्ट-एंड-रोड इनिशिएटिव (BRI) में दोनों की साझेदारी गहरी है। यही कारण है कि हिंदुस्तान टाइम्स जैसे अखबारों ने संपादकीय में स्पष्ट लिखा कि यह चीन का “सेल्फ-इंटरस्ट” है, न कि भारत के लिए कोई त्याग।
विशेषज्ञों की राय
- सुशांत सिंह (विदेश नीति विशेषज्ञ): “सवाल यह नहीं है कि हमें चीन से दोस्ती करनी चाहिए या नहीं। सवाल यह है कि क्या हम संतुलित नीति बना पा रहे हैं? अगर हम अमेरिका के दबाव से बचने के लिए चीन पर झुकते हैं, तो यह हमें और अधिक असुरक्षित बनाता है।”
- सी. राजामोहन (रणनीतिक विश्लेषक): “भारत की विदेश नीति का संकट यह है कि यह टिकाऊ विजन के बजाय तात्कालिक मजबूरियों पर आधारित है। मोदी सरकार का चीन की ओर झुकाव इस प्रवृत्ति की ताज़ा मिसाल है।”
बड़े सवाल
- क्या मोदी सरकार अमेरिका से दूरी बनाकर चीन की छत्रछाया में खड़ा होना चाहती है?
- क्या भारत 1962 जैसी गलती दोहरा रहा है, जब “भाई-भाई” का नारा युद्ध में बदल गया था?
- क्या भाजपा सरकार उन पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और नेताओं पर से केस हटाएगी जिन्हें “चीनी एजेंट” बताकर सताया गया?
- क्या यह विदेश नीति देश की दीर्घकालिक सुरक्षा हितों को नुकसान नहीं पहुँचाएगी?
निष्कर्ष
मोदी सरकार की हालिया कूटनीतिक पलटी यह दिखाती है कि भारत की विदेश नीति इस समय एक प्रतिक्रियावादी मोड में है। अमेरिकी दबाव ने भारत को चीन की ओर धकेला है, लेकिन यह संतुलन कितने समय तक टिकेगा—यह बड़ा सवाल है।
इतिहास गवाह है कि “भारत-चीन भाई-भाई” का नारा ज्यादा समय नहीं चला था। आज की परिस्थितियाँ कहीं अधिक जटिल और खतरनाक हैं। ऐसे में यह पलटी सिर्फ सरकार की नहीं, बल्कि देश की रणनीतिक दिशा का भी प्रश्न है।