November 22, 2025 12:36 am
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सतही उदारता और छिपा हुआ ‘हिंदू राष्ट्र’ एजेंडा

मोहन भागवत के विज्ञान भवन लेक्चर में सतही उदारता और असली हिंदू राष्ट्र एजेंडा साफ दिखा। संविधान की अनुपस्थिति, मनुस्मृति पर गोलमोल बातें और मुसलमान-ईसाई को ‘हिंदू’ बताने की जिद – क्या यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी नहीं?

मंदिर-मस्जि़द की लड़ाई लड़ने के लिए भक्तों के घरों में तीन-तीन बच्चे तो होने ही चाहिए

दिल्ली के विज्ञान भवन में मोहन भागवत के लेक्चर की सीरीज़ दरअसल केवल भाषण नहीं थे, बल्कि यह आरएसएस के उस पुराने एजेंडे को नए शब्दों में पेश करने की कवायद थी जिसे वे बार-बार छुपाते भी हैं और परोसते भी हैं। सवाल यह है कि आखिर इस देश की लोकतांत्रिक राजनीति में आरएसएस किस दिशा में हमें ले जाना चाहता है?

आज़ादी के आंदोलन से दूरी और झूठे नायक

भागवत ने यह स्वीकारा कि आरएसएस ने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग नहीं लिया, लेकिन इसे एक चालाक नैरेटिव में ढालकर पेश किया। और उसी मंच से उन्होंने सावरकर को क्रांतिकारियों का ‘अग्रदूत’ बता दिया। यह न केवल इतिहास की तोड़मरोड़ है बल्कि RSS की उस कोशिश का हिस्सा भी है जिसमें वे स्वतंत्रता आंदोलन की असली विरासत को अपने ढंग से लिखना चाहते हैं।

तीन बच्चों का ‘सुझाव’ और पुराना डर

आरएसएस के लिए जनसंख्या हमेशा एक राजनीतिक टूल रही है। भागवत ने भी तीन बच्चों का सुझाव देकर वही संदेश दोहराया – कि मुसलमानों की अधिक जनसंख्या एक ‘खतरा’ है और हिंदुओं को संख्या में प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए। यह विचार न तो वैज्ञानिक है और न ही सामाजिक यथार्थ से मेल खाता है। बल्कि यह समाज में अविश्वास और विभाजन पैदा करने का एक और तरीका है।

‘उदारता’ या धार्मिक वर्चस्व?

भागवत का सबसे खतरनाक तर्क यह था कि भारत के सभी लोग हिंदू हैं, बस पूजा की पद्धति अलग है। यानी मुसलमान और ईसाई भी अंततः हिंदू हैं। यह विचार सतही उदारता के रूप में पेश किया गया, लेकिन असल में यह धार्मिक विविधता को मिटाने और बहुसंख्यक धर्म की पहचान थोपने का प्रयास है।

संविधान गायब, मनुस्मृति प्रकट

इतने लंबे लेक्चर में भागवत ने संविधान का नाम तक नहीं लिया। यह वही संविधान है जिसने लोकतंत्र, बराबरी और आज़ादी की नींव रखी। इसके बजाय उन्होंने बार-बार हिंदू ग्रंथों का हवाला दिया और मनुस्मृति पर गोलमोल बातें कीं। सवाल उठता है कि क्या वे सचमुच भारतीय संविधान से सहमत हैं या फिर मनुस्मृति की वर्ण व्यवस्था को ही समाज का ढांचा मानते हैं?

भाषा और संस्कृति पर दोहरा रवैया

भागवत ने कहा कि विदेशी भाषाओं को छोड़कर सब भारतीय भाषाएं राष्ट्रीय भाषा हैं। लेकिन उन्होंने यह साफ नहीं किया कि क्या उर्दू जैसी भारतीय भाषा भी उनके लिए ‘विदेशी’ है। वहीं अंग्रेज़ी, जो आज शिक्षा और शोध की रीढ़ है, उसका भविष्य क्या होगा? यहां भी उनकी सोच यथार्थ से दूर और विचारधारा की कैद में दिखती है।

विज्ञान बनाम पौराणिकता

आरएसएस लंबे समय से विज्ञान और तर्क के मुकाबले पौराणिक कथाओं को आगे करता रहा है। इस बार भी भागवत के लेक्चर के बीच भाजपा नेताओं के दावे—हनुमान को पहला अंतरिक्ष यात्री और पुष्पक विमान को आधुनिक विमानन से पहले का आविष्कार—याद दिला गए कि ‘विज्ञान’ के नाम पर कैसा छल चल रहा है।

नतीजा: परिष्कृत भाषा, पुराना एजेंडा

भागवत का लेक्चर एक परिष्कृत और चालाक भाषा में RSS के पुराने एजेंडे की ही पुनरावृत्ति था—हिंदू राष्ट्र। संविधान, लोकतंत्र और बहुलता की बात कहीं नहीं थी। मुसलमानों-ईसाइयों को सतही रूप से ‘हममें से एक’ बताकर वे असल में उनकी धार्मिक पहचान को नकारते हैं।

सच यही है कि मोहन भागवत का लेक्चर भले ही ‘उदार’ और ‘समावेशी’ लगे, लेकिन उसके पीछे छिपा संदेश वही है: भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का सपना।

राम पुनियानी

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