October 6, 2025 8:21 am
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RSS और स्वयंभू धर्मगुरुओं के मिलन से बनता है हिंदुत्ववादी सत्ता का समीकरण

12 सितंबर को संघ प्रमुख के जन्मदिन के मौके पर मोदी द्वारा मोहन भागवत की तारीफ़ और धर्मगुरुओं के साथ आरएसएस के बढ़ते संबंध — राजनीतिक व सामाजिक मायने विस्तार से।

मोदी की तारीफ़, धर्मगुरु और आरएसएस: मोहन भागवत के जन्मदिन पर जो दिखा — मतलब और सवाल

12 सितंबर को आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत का जन्मदिन था। इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़े अखबारों में एक संदेश प्रकाशित कर भागवत की तारीफ़ की — और यह सिर्फ़ शिष्टाचार भर नहीं माना जा सकता। पिछली कुछ राजनीति-घटनाओं की पृष्ठभूमि और हालिया संकेतों को मिलाकर देखा जाए तो इसमें उन बड़े सवालों के सुराग हैं जिनका असर राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मैदान पर पड़ सकता है।

क्या हुआ — संक्षेप में

प्रधानमंत्री द्वारा सार्वजनिक तौर पर मोहन भागवत की अक्सर तारीफ़ करना आज नई बात नहीं रही, पर 12 सितंबर के संदेश के बाद यह चर्चा फिर ज़ोरों पर आ गई कि क्या यह सीधे-सीधे उस बहस की तरफ़ इशारा है जो हाल ही में उठी थी: क्या 75 साल की उम्र के बाद कोई शीर्ष नेता पद से हटना चाहिए या नहीं? कई विश्लेषक इसे संकेत के तौर पर देख रहे हैं कि सत्ता और संगठन के बीच दूरी कम होती जा रही है।

इसी जन्मदिन समारोह पर कुछ चर्चित धार्मिक नेताओं की मौजूदगी ने और भी ध्यान खींचा — रविशंकर, बाबा रामदेव जैसे नाम जो पहले भी सियासी आंदोलन और वोट-बहरूपिये राजनीति के साथ जुड़े दिख चुके हैं। इन धर्मगुरुओं का सामाजिक पहुँच, जनसमर्थन और जनमानस पर असर उन्हें एक अलग तरह का ताकतवर खिलाड़ी बनाता है।

धर्मगुरुओं और आरएसएस का एजेंडा — क्या जुड़ाव है?

बीते कुछ दशकों में कुछ धार्मिक व्यक्तित्वों का सार्वजनिक-जीवन और राजनीतिक संगठन के करीब आना लगातार देखा गया है। रामदेव, आसाराम बापू, गुरमीत राम रहीम, राम रहीम जैसे — अलग-अलग समय पर राजनीतिक समर्थन, आंदोलन या वैचारिक निकटता के कारण सुर्ख़ियों में रहे हैं। इनका सामान्य बिंदु यह है कि वे अक्सर हिन्दू-पहचान, सांस्कृतिक नरेटिव और पारंपरिक श्रद्धाओं को आगे बढ़ाते हैं — और यह वही एजेन्डा है जिसे आरएसएस ‘हिन्दू राष्ट्र’ की रूपरेखा से जोड़ता है।

कई मामलों में ये धर्मगुरु-आश्रम आर्थिक रूप से स्वतंत्र और सुदृढ़ संरचनाएँ चला रहे हैं — जिनका संगठनात्मक और जनसामान्य प्रभाव चुनावी और सामाजिक राजनीतियों पर असर डालता है। इसलिए आरएसएस-जैसी संस्थाओं के साथ इनका सहयोग सिर्फ़ वैचारिक नहीं, बल्कि रणनीतिक और सुविधाजनक भी माना जा सकता है।

राजनीतिक और सामाजिक निहितार्थ

  1. वैधानिक-लैसक्रम्य और वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर असर — जब सार्वजनिक मंचों पर आस्था-आधारित विचार प्रमुख हो जाते हैं, तो समकालीन वैज्ञानिक-तर्क और संवैधानिक-नियमों पर बहस कम हो सकती है।
  2. नैतिक वैधता और जनमानस — धर्मगुरुओं की लोकप्रियता से किसी राजनीतिक एजेंडे को सामाजिक वैधता मिल सकती है, जो लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के लिए चुनौती बन सकती है।
  3. निगमन और चुनावी ताकत — आश्रम-नेटवर्क और धर्मिक संस्थाएँ वोट-बैंक और जनसंघटन में निर्णायक भूमिका निभा सकती हैं।

ऐतिहासिक उदाहरण और संकेत

जैसे अन्ना हज़ारे-समर्थन और कुछ धर्मगुरुओं का उसमें जुड़ाव — यह याद दिलाता है कि धर्मिक हस्तक्षेप कभी-कभी बड़े राजनीतिक परिणाम भी लाते रहे हैं। 2014 के राजनीतिक बदलावों के परिप्रेक्ष्य में इस तरह की गठबंधनों की भूमिका बार-बार चर्चा में रही है।

सावधानी और सवाल

यह समझना ज़रूरी है कि समाज में नई तरह के धर्मगुरु क्यों उभर रहे हैं और उनका प्रभाव कैसे राजनीतिक एजेंडों के साथ मेल खाता है। क्या यह नागरिकों की स्वतन्त्र सोच को प्रभावित कर रहा है? क्या संवैधानिक सिद्धांत और वैज्ञानिक चेतना को सुरक्षित रखने के लिए हमें अधिक सतर्कता बरतनी चाहिए? राज्यों-केंद्र के बीच, और धर्म-राजनीति के गठजोड़ पर स्वतंत्र और तथ्यपरक जांच की ज़रूरत है।

निष्कर्ष: मोहन भागवत के जन्मदिन पर मोदी की खुलेआम तारीफ़ और धर्मगुरुओं का सार्वजनिक जुड़ाव केवल एक रस्मी घटना नहीं है — यह संकेत है कि वैचारिक, सामाजिक और राजनीतिक गठजोड़ किस तरह बन रहे हैं। इन गठजोड़ों की राजनीति को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता; नागरिक-सतर्कता, मीडिया-पड़ताल और संवैधानिक चर्चा की ज़रूरत है।

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राम पुनियानी

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