बेरोज़गारों को क्या बनाया जा रहा उपद्रवी? क्यों हो रहा त्योहारों का शस्त्रीकरण
11 अगस्त 2025 को उत्तर प्रदेश के फ़तेहपुर ज़िले में 2000 लोगों की भीड़ ने एक दरगाह पर हमला कर दिया। भीड़ ने दावा किया कि यह स्थल पहले मंदिर था और बाद में दरगाह बना दी गई। बिना किसी ऐतिहासिक प्रमाण के, उन्होंने दरगाह तोड़ी, पूजा-अर्चना की और भगवा झंडा फहरा दिया।
लेकिन असली सवाल यह है कि यह भीड़ तैयार कैसे होती है? कौन इन्हें संगठित करता है? और सबसे अहम – जब ऐसी घटनाएँ होती हैं तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की चुप्पी क्यों बनी रहती है?
आरएसएस की “तैयारी प्रयोगशाला”
ऐसी भीड़ में अधिकतर बेरोज़गार, हताश युवा होते हैं जिन्हें हिंदुत्व की संकीर्ण परिभाषाओं से भड़काया जाता है। उन्हें यह सिखाया जाता है कि “जहाँ मस्जिद है, वहाँ पहले मंदिर था।” यही तर्क बाबरी मस्जिद से लेकर फ़तेहपुर दरगाह तक दोहराया जाता है।
आरएसएस का ढांचा ऐसे युवाओं के लिए एक “ग्रोमिंग स्पेस” बनता है—शाखाओं और सांस्कृतिक संगठनों के ज़रिए उनके भीतर असुरक्षा और आक्रामकता की भावना भरी जाती है। फिर इन्हीं युवाओं को वीएचपी, बजरंग दल जैसे सहयोगी संगठनों के ज़रिए हिंसक अभियानों में लगाया जाता है।
फ़तेहपुर घटना की टाइमलाइन
- पहले से घोषणा: 11 अगस्त को दरगाह तोड़ने की योजना सार्वजनिक रूप से बताई गई थी।
- भीड़ का जुटना: करीब 2000 लोग सुनियोजित तरीके से एकत्र हुए।
- दरगाह पर हमला: दरगाह में पूजा-अर्चना की गई, भगवा झंडा फहराया गया और उसे तोड़ दिया गया।
- पुलिस की मौजूदगी: प्रशासन को जानकारी थी, पुलिस मौके पर रही लेकिन भीड़ को नहीं रोका।
- बाद की स्थिति: हमलावर चौक पर बैठकर हनुमान चालीसा पढ़ते रहे, जबकि प्रशासन निष्क्रिय रहा।
- आरएसएस की प्रतिक्रिया: घटना पर संगठन ने चुप्पी साध ली, जबकि उसके सहयोगी संगठनों (वीएचपी, बजरंग दल) के लोग सीधे तौर पर शामिल थे।
हिंसा के बाद की चुप्पी
फ़तेहपुर की घटना पुलिस की मौजूदगी में हुई। प्रशासन को पहले से जानकारी थी, फिर भी भीड़ को रोका नहीं गया। यह सबके सामने हुआ, मगर आरएसएस ने इस पर कोई आधिकारिक बयान नहीं दिया।
आरएसएस का यह रवैया नया नहीं है। पिछले वर्षों में जब भी मस्जिदों या दरगाहों पर हमले हुए, संघ ने या तो खामोशी साध ली या फिर अपने संगठनों को ढाल बनाकर यह कह दिया कि “ये स्वतःस्फूर्त भावनाएँ थीं।”
धार्मिक पर्व और राजनीतिक हथियार
रामनवमी, हनुमान जयंती और कांवड़ यात्रा जैसे पर्वों का इस्तेमाल भी आरएसएस के ढांचे ने किया है। धार्मिक आस्था की जगह इन्हें “शक्ति प्रदर्शन” का साधन बना दिया गया है। मस्जिदों और दरगाहों के सामने जुलूस निकालना, नारे लगाना और भगवा झंडा लहराना इसी रणनीति का हिस्सा है।
समाज पर असर
आरएसएस की इस सोच से सबसे ज़्यादा प्रभावित युवा पीढ़ी होती है। जिन्हें शिक्षा, रोज़गार और अवसर देने की बजाय, उन्हें नफ़रत और हिंसा की राजनीति में झोंक दिया जाता है। समाज का बड़ा हिस्सा इस पर खामोश रहता है, और संघ की यही रणनीति सफल होती है—
- युवाओं को “सैनिक” बनाना,
- हिंसा को “धर्म रक्षा” बताना,
- और घटना के बाद खुद “ग़ैर-राजनीतिक सांस्कृतिक संगठन” की ढाल लेकर चुप रह जाना।
निष्कर्ष
फ़तेहपुर की दरगाह विध्वंस की घटना केवल एक इमारत का टूटना नहीं है। यह आरएसएस की उस रणनीति की परत खोलती है, जिसमें समाज के कमजोर हिस्सों को भड़काकर मैदान में उतारा जाता है और फिर संगठन स्वयं चुप्पी साधकर बच निकलता है।
यह चुप्पी ही बताती है कि आरएसएस केवल दर्शक नहीं, बल्कि इस पूरी प्रक्रिया का छिपा हुआ निर्देशक है।